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पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/२१

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योगप्रदीप
 

सबसे पहले स्थिरता, शान्ति, मुक्ति आवश्यक है। मातेश्वरीके गतिशील अंगको अपरिपक्क अवस्थामें नीचे ले आनेका प्रयास करना ठीक नहीं; क्योंकि ऐसी अवस्था में उसका नीचे आना ऐसी क्षुब्ध अशुद्ध प्रकृतिमें आना होगा जा उसे अपना न सकेगी और इस कारण इससे भयंकर उपद्रव हो सकते हैं।

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यदि विज्ञानसे किसी ऐसे महत्तर और पूर्णतर सत्यका अनुभव न होता हो जो उसके नीचे के लोकोंमें नहीं होता तो वहाँ पहुँचनेका प्रयास करना भी व्यर्थ होता। प्रत्येक लोकके अपने-अपने सत्य हैं। सभी सत्य सर्वत्र वैसे ही नहीं हैं। कुछ सत्य ऐसे हैं जो ऊर्ध्वतर लोक में सत्यरूप में नहीं रहते। उदाहरणार्थ, वासना और अहंकार मनोमय, प्राणमय और अन्नमय अज्ञानके सत्य हैं; यहाँ कोई अहंकाररहित या वासनारहित हो तो वह एक निर्जीवसा तामसिक यन्त्र मात्र है। पर इस लोकसे जब हम ऊपर उठते हैं तब अहंकार और वासनाकी कोई सत्ता नहीं रहती, वहाँ वे असत् ही प्रतीत होते हैं और सदात्मा और सत्संकल्पको विकृत विपर्यस्त करनेका काम करते हैं। दैवी और आसुरी शक्तियोंका संग्राम यहाँकी एक नित्य सत्य घटना है; पर ज्यों-ज्यों हम ऊपर उठते हैं त्यों-त्यों इसकी

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