पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/२५

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योगप्रदीप
 

सदात्माके दो रूप हैं―एक आत्मा और दूसरा अन्तरात्मा अर्थात् हृत्पुरुष जिसे हम चैत्यपुरुष भी कहते हैं। सदात्माकी अनुभूति इनमेंसे किसी एक रूपमें अथवा इन दोनों ही रूपोंमें हो सकती है। इन दोनों अनुभूतियो- में अन्तर यही है कि आत्मा विश्वभरमें व्याप्त प्रतीत होता है, और अन्तरात्मा व्यक्तिविशेषके मन, प्राण और शरीरको धारण करनेवाले व्यष्टि पुरुषके रूपमें प्रतीत होता है। पहले पहल जब किसीको आत्मानुभव होता है तब वह आत्माको सब पदार्थोंंसे पृथक्, अपने आपमें ही स्थित और संसारसे सर्वथा असक्तरूपमें ही देखता है। इस प्रकारके आत्मानुभवको सूखे हुए नारिकेल फलकी उपमा दी जा सकती है। पर अन्तरात्मा या हृत्पुरुषका अनुभव ऐसा नहीं है, इस अनुभवमें भगवान्के साथ एकत्व, भगवान् ही आश्रय और भगवान ही एकमात्र शरण्य देख पड़ते हैं और निम्न प्रकृतिको बदल डालने तथा अपनी सन्मनोमय, सत्प्राणमय और सदन्नमय सत्ताको ढूँढ़ निकालनकी शक्ति अनुभूत होती है। इस योग में इन दोनों प्रकारके अनुभवोंका होना आवश्यक है।

‘अहं’ (मैं) रूप जो छोटा-सा अहंकार है, यह प्रकृतिकी रचना है और यह रचना मानसिक, प्राणगत और भौतिक, तीनों ही, एक-साथ है; और इसका हेतु बहिर्भूत चेतना तथा कर्मको केन्द्रीभूत करके व्यष्टि-

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