पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/२६

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हमारा लक्ष्य रूपसे व्यक्त करने में सहायता देना है । जब सदात्मा मिल जाता है तब अहंकारकी कुछ उपयोगिता नहीं रह जाती इसलिये तब उसका अन्त हो जाता है और उसके स्थानमें सदात्माको प्रतीति होती है। त्रिगुण विशुद्ध और सूक्ष्मातिसूक्ष्म होकर अपने दिव्य पर्यायोंको प्राप्त होते हैं-सत्त्व ज्योतिःस्वरूप अर्थात् विशुद्ध आत्मतेज हो जाता है, रज तपःस्वरूप अर्थात् शान्तिमय प्रचण्ड दिव्य शक्तिरूपको और तम शम अर्थात् निईन्द्र समत्व-शान्तिरूपको प्राप्त होता है।

विश्वब्रह्माण्डकी तीन शक्तियाँ हैं जिनके अधीन सब पदार्थ हैं-सृष्टि, स्थिति और संहार; जो-जो कुछ रचा जाता है वह कुछ कालतक रहता है, बाद क्षीण होकर नष्ट होने लगता है । इनमेसे यदि संहारशक्ति निकालकर अलग की जाय तो इसका अभिप्राय यह होगा कि ऐसी सृष्टि होगी जो कभी नष्ट न होगी, सदा बनी रहेगी और बढ़ती रहेगी । परन्तु अविद्यामें उन्नतिके होनेके लिये संहारकी आवश्यकता है, और विद्यामें अर्थात् सत्सर्जनमें बिना किसी प्रलयके सतत सद्विकासका ही विधान है। [१५]