पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/३३

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योगप्रदीप
 

पड़ी है और मूलाधारमें यही वह शक्ति है जिसे तन्त्रोंमें कुण्डलिनी शक्ति कहा है। पर यह हमारे ऊपर भी अर्थात् हमारे मस्तकके ऊपर भागवती शक्तिके रूपमें है। वहाँ यह कुण्डलित, अन्तर्हित और सुप्त नहीं है किन्तु जागती हुई, सब कुछ जानती हुई, समर्थ, व्यापक और विशाल है; वहाँ वह अपने प्राकट्यके लिये अवसरकी प्रतीक्षामें है और यही वह शक्ति है, वह मातृशक्ति है जिसकी ओर हमें अपने-आपको खोल देना है। मन-बुद्धिमें यह भगवन्मानसशक्तिके रूपमें या विश्वमानसशक्तिके रूपमें अपने-आपको प्रकट करती है और यह वह काम कर सकती है जो व्यष्टिगत मन-बुद्धि नहीं कर सकती; और उसी अवस्थामें इसे योगयुक्त मानसशक्ति कहते हैं। जब यह शक्ति प्राणों में या शरीरमें उसी प्रकार प्रकट होती और कार्य करती है तब उसका योगयुक्त प्राणशक्तिरूप या योगयुक्त शरीरशक्तिरूप प्रकट होता है। इन सभी रूपोंमें यह जाग सकती है और दमककर बाहर और ऊपर प्रकट हो सकती है, नीचेसे भी उठकर ऊपर फैल सकती है; अथवा यह नीचे उतरकर वहाँ अमोघ शक्ति बन सकती है; यह नीचे शरीरमें भी उतर सकती है और वहाँ कर्मशील होकर अपनी ऐशी सत्ता स्थापित कर सकती है, ऊपरसे विशालतामें विस्तृत होती है, हमारे निम्नतम भागको ऊर्ध्वतम भागके साथ जोड़ सकती है, व्यष्टय-

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