पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/३२

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आधारके लोक और अंग
 

जो परमात्मतत्त्व है उसके साथ संयोग या विश्वात्माके साथ संयोग या व्यष्टिगत जो आत्मा है उसके साथ संयोग, अथवा जैसा कि इस योगमें है—तीनोंके साथ, एक साथ, संयोग। अथवा इसका अर्थ एक ऐसी चेतनाको प्राप्त होना है जिसमें पुरुष अपने क्षुद्र अहंकार, व्यष्टिगत मन-बुद्धि, व्यष्टिगत प्राण और शरीरसे बँधा नहीं रहता बल्कि परमात्माके साथ या विश्वात्मचैतन्यके साथ या किसी ऐसे अन्तःस्थित गूढातिगूढ चैतन्यके साथ एकत्वको प्राप्त होता है जिसमें पुरुष अपने स्वरूपको जान लेता है, अपने ही अन्तःस्थित आत्माको तथा जीवनके वास्तविक तत्त्वको पहचान लेता है। योगयुक्त चैतन्यस्थितिमें पुरुष पदार्थों को ही केवल नहीं जानता, बल्कि उनकी प्रवर्तक शक्तियोंको भी जानता है, केवल प्रवर्तक शक्तियों- को ही नहीं जानता बल्कि उनके पीछे जो चिन्मय पुरुष है उसे भी जानता है। यह सब अपने अन्दर ही नहीं बल्कि विश्वके अन्दर भी जानता है।

एक ऐसी शक्ति है जो नवीन चैतन्यके उदयके संग आती है और उस चैतन्यके साथ ही बढ़ती और साथ-साथ उस चैतन्यको समुदित कराने और उसके पूर्ण होने में सहायक होती है। यह शक्ति योगशक्ति है। यह हमारी अन्तरात्मसत्ताके सब केन्द्रों (चक्रों) में लिपटी हुई सोयी

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