पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/३७

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योगप्रदीप पार्थिव चैतन्य और पार्थिव लोकके ऊपर, पृथिवी जिनका कि एक भाग है, इन लोकोंकी अपनी स्वतन्त्र सत्ता पहलेसे है ही।

मनुष्यकी सारी प्राण-प्रकृतिके पीछे उसका वास्तविक प्राणपुरुष प्रच्छन्न और अचल रूपसे विद्यमान है और वह इस बाह्य प्राण-प्रकृतिसे सर्वथा भिन्न है । यह बाह्य प्राण-प्रकृति संकुचित, अज्ञ, परिसीमित और तामसी वासना, विकारवेग, लालसा, विद्रोह, सुख-दुःख, आगमापायी हर्ष-शोक, उल्लास-विषाद आदिसे परिपूर्ण है । इसके विपरीत वस्तुतः जो प्राणपुरुष है वह विस्तृत, विशाल, स्थिर, शक्तिमान् , सीमारहित, सुप्रतिष्ठ और अचल, सर्व- सामर्थ्य-सर्वज्ञान-सर्वानन्दक्षम है । और फिर इसमें अहंकार नहीं है, क्योंकि यह अपने-आपको श्रीभगवान्का एक प्रक्षेप और करण जानता है-यह भागवत योद्धा है, पवित्र और पूर्ण है; इसमे सब भगवत्कायोंको सिद्ध करने- की करणशक्ति है। यही वास्तविक प्राणपुरुष है जो तुम्हारे अन्दर जागा है और बाहर आ गया है। इसी प्रकारसे वास्तविक मानस पुरुष भी है और वास्तविक भौतिक पुरुष भी है । जब ये पुरुष प्रकट होते हैं तब नुम्हें अपने अन्दर अपनी विविध सत्ताका पता लगता है- जो सत्ता पीछे है वह सदा स्थिर और शक्तिमती है, और [२६]