पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/४३

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योगप्रदीप
 

प्रज्वलित व्यापक अग्निके रूपमें विकसित हो रहा है। अतः हृत्पुरुष विकसनशील है, जीवात्माके समान विकसनके परे नहीं।

पर मनुष्यको अपने इस स्वरूपका या जीवात्माका बोध नहीं है, वह केवल अपने अहङ्कारको जानता है अथवा जानता है केवल मनोमय पुरुषको जिसके द्वारा उसके शरीर और प्राणोंका नियन्त्रण होता है। पर और गहराईमें जानेपर वह अपने अन्तःस्वरूपको अर्थात् हृद्देशस्थित पुरुष- को अपना वास्तविक केन्द्र जानता है; प्रधान पुरुष ही विकासमें हृत्पुरुष है, यह परमात्माके सनातन अंश जीवात्मासे निकलता और उसीको प्रकट करता है। जब निजबोधकी पूर्णता होती है, तब जीवात्मा और हृत्पुरुष परस्पर युक्त हो जाते हैं।

अहङ्कार प्रकृतिकी एक रचना है; पर यह केवल भौतिक प्रकृतिकी ही रचना नहीं है, और इसलिये शरीरके नष्ट होने के साथ ही यह नष्ट नहीं होता। भौतिक अहङ्कार- के अतिरिक्त मनोगत और प्राणगत अहङ्कार भी होता है।

जड चेतनाका आश्रय यहाँ केवल अविद्या ही नहीं है, अचेतना भी है―अर्थात् चैतन्य जड-रूप और जड-क्रिया- शक्तिमें भी छिपा हुआ है। पार्थिव चेतना ही, अविद्याके

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