हैं; परन्तु यह जीवात्मा भी ज्यों ही व्यक्तीकरण के कर्मपर अध्यक्षरूपसे अधिष्ठित होता है त्यों ही यह अपने-आपको बहुविध परमात्माका एक केन्द्रमात्र जानता है, स्वयं परमेश्वर नहीं। यह भेद ध्यान में रखना परमावश्यक है; अन्यथा प्राणगत लवमात्र अहंकारसे साधक अपने-आपको अवतार समझने लग सकता है या रामकृष्णके शिष्य 'हृदय' की तरह उन्मादको प्राप्त हो सकता है।
आत्मा ब्रह्म-परमात्मतत्त्व है।
जब परमात्मा अपनी अन्तर्हित बहुविधताको व्यक्त करते हैं, तब यह आत्मतत्त्व अर्थात् आत्मा इस व्यक्ती-करण के लिये प्रधान पुरुष बनता है और ऊर्ध्वमें ही स्थित रहकर अपनी व्यक्त व्यष्टियों और सांसारिक जीवनोंके विकासका अधिनेतृत्व करता है, पर यह स्वयं परमात्माका सनातन अविनाशी अंश है और जगदभिव्यक्ति के परे रहता है—'परा प्रकृतिर्जीवभूता।'
नीचे इस जगत् में अर्थात् अपरा प्रकृतिमें परमात्माका यह सनातन अंश परमात्माग्नि के स्फुलिंगरूप हृत्पुरुष के रूपसे प्रकट होता है और यह हृत्पुरुष मनोगत, प्राणगत और अन्नगत पुरुषको धारण करता है। हृत्पुरुष यही अभिस्फुलिंग है जो निजबोधकी वृद्धि के साथ-साथ, पूर्ण
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