पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/४६

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आधारके लोक और अंग
 

लौटता है और वहाँ तबतक विश्राम करता है जब उसका नवीन जन्म होनेको होता है।

सामान्य विकासवाले मनुष्य प्राणियोंकी यही गति होती है। इसमें फिर जिस-तिसके वैयक्तिक स्वभाव और विकासके अनुसार अनेक भेद होते हैं। उदाहराणार्थ, यदि मनका सुदृढ़ विकास हुआ हो तो मनोमय सत्ता संग रह सकती है, इसी प्रकार प्राणसत्ता भी संग रह सकती है यदि वास्तविक हृत्पुरुषके द्वारा ये सुव्यवस्थित हुई हों और हृत्पुरुषके घेरेमें आ गयीं हों; इस प्रकार मनोमय और प्राणमय पुरुष भी हृत्पुरुषके अमृतत्वके भागी होते हैं।

जीवनमें अन्तरात्माको जो-जो अनुभव प्राप्त होते हैं उनके सारतत्त्व वह बटोर लेता है और उन्हींको आगे होने- वाले अपने विकासका आधार बनाता है; जब वह पुनः जन्म लेता है तब वह अपने मनोमय, प्राणमय, अन्नमय कोषोंके साथ अपना उतना ही कर्म संग ले लेता है जितना कि इस नये जीवनमें आगेके अनुभवके लिये आवश्यक हो।

जीवके प्राणमय अंशके लिये ही श्राद्धादिक क्रियाकर्म किये जाते हैं जिसमें भूलोक या प्राणमय लोकोंकी आसक्तिके बन्धनस्वरूप प्राणगत स्पन्दनोंसे मुक्त

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