पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
आधारके लोक और अंग
 

उसमें जो शक्तियाँ क्रीडा कर रही हैं उन्हें जान ले। इन सबको वह वैसे ही अनुभव करे जैसे अभी भौतिक पदार्थों और उनके संस्पर्शीको अनुभव करता है। इन सबको वह अपने विशाल या विश्वव्यापक आत्माके साथ एकाकार अनुभव करता है।

विश्वकी भी मनोमय, प्राणमय और अन्नमय प्रकृति होती है और इन मनोमय प्राणमय और अन्नमय प्रकृतिकी शक्तियोंसे और प्रवृत्तियोंसे गृहीत अंशोंके द्वारा व्यष्टिगत मन प्राण और शरीर बनते हैं। आत्मा मन प्राण और शरीरवाली प्रकृतिके परेसे आता है। यह परा प्रकृतिका अंश है और इसीलिये हम उस परा प्रकृतिकी ओर अपने आपको उन्मुख कर सकते हैं।

ईश्वर सदा ही वह एक है जो 'बहु' है। व्यष्टिगत आत्मा उस एकके बहुत्वका अंश है और हृत्पुरुष इस व्यष्टिगत आत्माका वह अंश है जो वह इस पार्थिव प्रकृतिमें विकसित होनेके लिये डाल रखता है। मुक्तिकी अवस्थामें व्यष्टिगत आत्मा अपने-आपको वही एक जानता– अनुभव करता है (जो फिर भी अनेक है)। यह व्यष्टि- गत आत्मा उस एकमें अपने-आपको निमजित कर सकता है या उसकी गोदमें छिपकर बैठ सकता है―यही अद्वैत

सिद्धान्तका 'लय' है; यह व्यष्टिगत आत्मा अपना एकत्व

[ ३७ ]