अनुभव कर सकता है और फिर भी उस एकके बहुत्वके अंशरूपसे भगवान् में रमण कर सकता है, यह विशिष्टाद्वैत मोक्ष है; यह व्यष्टिगत आत्मा उस एकके बहुत्वमें ही रममाण होकर सनातन वृन्दावनमें श्रीकृष्णके साथ क्रीडा कर सकता है, यह द्वैती मोक्ष है। अथवा, यह व्यष्टिगत आत्मा मुक्त होकर भी लीला या प्राकट्यमें रह सकता है या जब चाहे इसमें अवतरण कर सकता है। श्रीभगवान्म नुष्योंके तत्त्वविचारोंसे बँधे नहीं हैं—वे अपने तत्त्वरूपमें तथा अपनी लीलामें सर्वथा स्वतन्त्र हैं।
अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंको उत्पन्न करने और चलाने- वाली जो चिन्मयी शक्ति है उसीके बाह्य या कर्मशील स्वरूपको प्रकृति कहते हैं। यह बाह्यरूप इस लोकमें यन्त्रवत्, त्रिगुणात्मक, तीन गुणोंका खेल-सा प्रतीत होता है। इसके पीछे जीता जागता भागवत चैतन्य और भागवती शक्ति है। प्रकृति स्वयं भी परा-अपरा दो भागोंमें विभक्त है—अपरा अविद्याकी प्रकृति है अर्थात् मन, बुद्धि, प्राण और शरीरकी प्रकृति जो चेतनामें भगवान् से पृथक्चे तनावाली है; परा सच्चिदानन्द भगवान्की भागवत प्रकृति है जिसमें विज्ञानकी अभिव्यक्ति-शक्ति निहित है, जो सदा भगवद्बोधसे युक्त है और अविद्या
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