पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/६६

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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

हृत्पुरुष पूर्णरूपसे तब उद्घाटित होता है जब साधक अपनी साधनामें मिली हुई प्राणगत वासनाओंसे मुक्त होता है और सरलता तथा सहृदयताके साथ मातृचरणोंमें अपने आपको समर्पित करनेमें सक्षम होता है। यदि अहंभावकी किसी प्रकारकी प्रवृत्ति या समर्पणके हेतुमें कोई छल होगा, यदि यह योग-साधना प्राणगत वासनाओंकी प्रेरणाके बलसे की जायगी, अथवा अंशतः या पूर्णतः किसी आध्यात्मिक या अन्य महत्पदलाभकी वासना, अभिमान, अतिमान या लौकिक महदधिकार, लोक-प्रतिष्ठा या लोगोंपर प्रभाव जमानेकी इच्छासे या योगशक्तिके द्वारा किसी प्राणगत वासनाको तुष्ट करनेके लिये कोई योग- साधन करेगा तो हृत्पुरुष उद्घाटित नहीं हो सकेगा और यदि कभी हो भी तो अंशतः ही और थोड़े समयके लिये ही होकर फिर आवृत हो जायगा, क्योंकि प्राणगत वासना- के कर्म ही इसके आवरण हैं; यह चैत्याग्नि दम घोटनेवाले प्राणगत कामके धूएँमें प्रकट नहीं हो सकता। इसी प्रकार यदि मन-बुद्धि इस योगमें अग्रसर होकर अन्तरात्माको पीछे कर दे, अथवा यदि भक्ति या साधनाकी कोई अन्य वृत्ति हृत्पुरुषके बजाय प्राणकी ओर अधिक झुके तो भी हृत्पुरुषके प्रकट होनेमें वही अक्षमता उपस्थित होती है। पवित्रता, सरल सहृदयता और दम्भरहित

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