पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/७३

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योगप्रदीप
 

है। इसीलिये इस योगमें हमलोग सदा ‘उद्घाटन’ ही करनेको कहा करते हैं―ऐसा उद्घाटन कि आन्तर मन प्राण और शरीर एक तो हमारे अन्तस्तम अङ्ग अर्थात् हृत्पुरुषकी ओर उद्घाटित हों और दूसरे मन-बुद्धिके ऊपर जो कुछ है उसकी ओर भी उद्घाटित हों―साधना- की सिद्धि के लिये यह उद्घाटन अनिवार्य है।

इसका मूल कारण यही है कि यह जो छोटा-सा मन प्राण और शरीर है, जिसे हमलोग अपना ‘आप’ कहते हैं, केवल एक बाह्य वृत्ति है, अपना ‘आत्मा’ नहीं। यह व्यष्टिगत आत्माका केवल एक अति क्षुद्र बाह्य अंश है जो एक जरा-से जीवनभरके लिये अविद्याकी क्रीडा- मात्रके लिये, आगे किया गया है। इसमें एक अंश मन है, एक अंश प्राण है और एक तमसाच्छन्न तथा प्रायः अचेतन शरीर है―यह मन सत्यके खण्डोंकी खोजमें इधर-उधर लुढ़कता-पुढ़कता रहता है, और यह प्राण आनन्दके चूरचारकी खोजमें भटकता रहता है, और यह शरीर पदार्थोके संस्पर्शोंंको ग्रहण करता और तत्परिणामस्वरूप होनेवाले दुःख या सुख भोगता है, उन्हें अधिकृत नहीं करता। यह सब तबतक होता रहता है जबतक मन ऊब नहीं जाता और अपने तथा पदार्थों- के वास्तविक सत्यको ढूँढ़ने नहीं लगता, और प्राण ऊबकर

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