पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/८५

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योगप्रदीप
 

श्रीभगवतीका रूप धारण करके सामने आतीं और जीवसे सेवा और समर्पण चाहती हैं। यदि ऐसी-ऐसी बातें हों और इन्हें अज्ञानवश अपना लिया जाय तो बड़ा ही भीषण नाशकारी परिणाम हो सकता है। हाँ, यदि साधक- की अनुमति केवल भागवत शक्तिके कार्यकी ओर ही हो और उसी शक्तिके आदेश-निर्देशके आगे प्रणति और शरणागति हो तो सब बातें ठीक-ठीक बन सकती हैं। यही अनुमति और इसके साथ समस्त अहङ्कारगत शक्तियों तथा अहंकारको प्रिय लगनेवाली सब शक्तियोंका त्याग, ये ही दो बातें साधनाभरमें साधककी रक्षा करनेवाली हैं। परन्तु प्रकृतिके सब रास्तोंपर सब तरहके जाल बिछे हुए हैं, अहङ्कारके भी असंख्य स्वाँग हैं, तमःशक्ति राक्षसी मायाके विलक्षण धूर्ततामय मारीच मृग हैं; बुद्धि पथप्रदर्शनका पूरा काम नहीं देती और प्रायः दगा करती है; प्राणगत वासना चाहे जिस ललचानेवाली चीजपर टूट पड़नेके लिये तैयार ही रहती है। यही कारण है कि इस योगमें ‘समर्पण’ पर हमलोग इतना जोर देते हैं। यदि हृच्चक्र पूर्णतया खुल जाय और हृत्पुरुष नियामक हो, तब तो कोई बात नहीं―सब ठीक है। परन्तु हृत्पुरुष चाहे जब निम्न प्रकृतिकी वासनाके क्षोभसे छिप सकता है। बहुत ही थोड़े लोग ऐसे होते हैं जो इन संकटोंसे बचे रहते हैं और यथार्थमें इन्हीं लोगोंके लिये समर्पण करना

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