पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/९३

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योगप्रदीप
 

और अपरिमाणता तथा असामञ्जस्य बढ़ता जा सकता है। और फिर, यह भी आवश्यक है कि श्रीभगवान् के लिये कर्मकी साधना बनी रहे; क्योंकि अन्तमें इससे साधक अपने आन्तर विकासको बाह्य प्रकृति और जीवन में ला सकता है और साधनाके अखण्ड सर्वाङ्गीण बननेमें सहायता मिल सकती है।

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प्रत्येक बात आन्तरिक अवस्थापर निर्भर करती है और बाह्य अवस्थाका उपयोग केवल आन्तरिक अवस्थाको व्यक्त करने और पक्का करने तथा उसे गतिशील और कार्यकारी बनाने में साधन और साहाय्यके तौरपर है। हृत्पुरुषको मुख्य करके अथवा ठीक अन्तरस्पर्शके साथ यदि तुम कोई काम करोगे या कोई बात कहोगे तो वह कार्य अव्यर्थ होगा, वह बात अव्यर्थ होगी; यदि तुम वही काम या वही बात मन-बुद्धिसे या प्राणकी आकुलतासे अथवा अन्तःकरण की दूषित या मिश्र अवस्थामें करोगे या कहोगे तो वह प्रयास सर्वथा व्यर्थ ही जा सकता है। प्रत्येक अवस्था और प्रत्येक क्षणमें ठीक तरहसे ठीक काम करनेके लिये साधकको चित्तकी ठीक अवस्थामें रहना होगा—किसी बने-बनाये मानसिक नियमके भरोसे यह बात नहीं बन सकती; क्योंकि कोई भी ऐसा मानसिक नियम किसी

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