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रंगभूमि

सोफी-"मैं काव्य-संबंधी विवाद का क्या निर्णय करूँगी, पिंगल का अक्षर तक नहीं जानती, अलंकारों का लेश-मात्र भी ज्ञान नहीं। मुझे व्यर्थ ले जाते हो।”

प्रभु सेवक-"उस झगड़े का निर्णय करने के लिए पिंगल जानने की जरूरत नहीं। मेरे और उनके आदर्श में विरोध है। चलो तो।"

सोफ़ी आँगन में निकली, तो ज्वाला-सी देह में लगी। जल्दी-जल्दी पग उठाते हुए विनय के कमरे में आई, जो राजभवन के दूसरे भाग में था। आज तक वह यहाँ कभी न आई थी। कमरे में कोई सामान न था। केवल एक कंबल बिछा हुआ था, और जमीन ही पर दस-पाँच पुस्तकें रखी हुई थीं। न पंखा, न खस की टट्टी, न परदे, न तसवीरें। पछुआ सीधे कमरे में आती थी। कमरे की दीवारें जलते तवे की भाँति तप रही थीं। वहीं विनय कंबल पर सिर झुकाये बैठे हुए थे। सोफी को देखते ही वह उठ खड़े हुए, और उसके लिए कुर्सी लाने दौड़े।

सोफी-“कहाँ जा रहे हैं?”

प्रभु सेवक-(मुस्किराकर) "तुम्हारे लिए कुर्सी लाने।"

सोफी-"वह कुर्सी लायेंगे, और मैं बैठूँगी! कितनी भद्दी बात है।"

प्रभु सेवक-"मैं रोकता भी, तो वह न मानते।"

सोफ़ी-इस कमरे में इनसे कैसे रहा जाता है!"

प्रभु सेवक-"पूरे योगी हैं। मैं तो प्रेम-वश चला आता हूँ।"

इतने में विनय ने एक गद्देदार कुर्सी लाकर सोफी के लिए रख दी। सोफी संकोच और लज्जा से गड़ी जा रही थी। विनय की ऐसी दशा हो रही थी, मानों पानी में भीग रह हैं। सोफी मन में कहती थी-कैसा आदर्श जीवन है! विनय मन में कहते थे- कितना अनुपम सौंदर्य है! दोनों अपनी-अपनी जगह खड़े रहे। आखिर विनय को एक उक्ति सूझी। प्रभु सेवक की ओर देखकर बोले-"हम और तुम बादी हैं, खड़े रह मकते हैं, पर न्यायाधीश का ता उच्च स्थान पर बैठना ही उचित है।"

सोफी ने प्रभु सेवक की ओर ताकते हुए उत्तर दिया--"खेल में बालक अपने को भूल नहीं जाता।”

अंत में तीनों प्राणी कंबल पर बैठे। प्रभु सेवक ने अपनी कविता पढ़ सुनाई। कविता माधुर्य में डूबी हुई, उच्च और पवित्र भावों से परिपूर्ण थी। कवि ने प्रसाद गुण कूट-कूटकर भर दिया था। विपय था-"एक माता का अपनी पुत्री को आशीर्वाद।" पुत्री ससुराल जा रही है; माता उसे गले लगाकर आशीर्वाद देती है-“पुत्री, तू पति-परायणा हो, तेरी गोद फले, उसमें फूल के-से कोमल बच्चे खेलें, उनकी मधुर हास्य-ध्वनि से तेरा घर और आँगन गूँजे। तुझ पर लक्ष्मी की कृपा हो। तू पत्थर भी छुए, तो कंचन हो जाय। तेरा पति तुझ पर उसी माँति अपने प्रेम की छाया रखे, जैसे छप्पर दीवार को अपनी छाया में रखता है।”

कवि ने इन्हीं भावों के अंतर्गत दांपत्य जीवन का ऐसा सुललित चित्र खींचा था