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रंगभूमि


कि उसमें प्रकाश, पुष्प और प्रेम का आधिक्य था; कहीं वे अँधेरी घाँटियाँ न थीं, जिनमें हम गिर पड़ते हैं; कहीं वे काँटे न थे, जो हमारे पैरों में चुभते हैं; कहीं वह विकार न था, जो हमें मार्ग से विचलित कर देता है। कविता समाप्त करके प्रभु सेवक ने विनयसिंह से कहा-“अब आपको इसके विषय में जो कुछ कहना हो, कहिए।"

विनयसिंह ने सकुचाते हुए उत्तर दिया-"मुझे जो कुछ कहना था, कह चुका।"

प्रभु सेवक-"फिर से कहिए।"

विनयसिंह-"बार-बार वही बातें क्या कहूँ।"

प्रभु सेवक-"मैं आपके कथन का भावार्थ कर दूँ?”

विनयसिंह-"मेरे मन में एक बात आई, कह दी; आप व्यर्थ उसे इतना बढ़ा

प्रभु सेवक-"आखिर आप उन भावों को सोफी के सामने प्रकट करते क्यों शर्माते हैं?”

विनयसिंह-"शर्माता नहीं हूँ, लेकिन मेरा आपसे कोई विवाद नहीं है। आपकी मानव-जीवन का यह आदर्श सर्वोत्तम प्रतीत होता है, मुझे वह अपनी वर्तमान अवस्था के प्रतिकूल जान पड़ता है। इसमें झगड़े की कोई बात नहीं है।"

प्रभु सेवक-(हँसकर) “हाँ, यही तो मैं आपसे कहलाना चाहता हूँ कि आप उसे वर्तमान अवस्था के प्रतिकूल क्यों समझते हैं? क्या आपके विचार में दाम्पत्य जावन सर्वथा निंद्य है? और, क्या संसार के समस्त प्राणियों को संन्यास धारण कर लेना चाहिए?"

विनयसिंह-"यह मेरा आशय कदापि नहीं कि संसार से समस्त प्राणियों को संन्यास धारण कर लेना चाहिए; मेरा आशय केवल यह था कि दाम्पत्य जीवन स्वार्थपरता का पोषक है। इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं, और इस अधोगति की दशा में, जब कि स्वार्थ हमारी नसों में कूट-कूटकर भरा हुआ है, जब कि हम बिना स्वार्थ के कोई काम या कोई बात नहीं करते, यहाँ तक कि माता-पुत्र-सम्बन्ध में-गुरु शिष्य-समय में-पत्नी-पुरुष-सम्बन्ध में स्त्रार्थ का प्राधान्य हो गया है, किसी उच्च कोटि के कवि के लिए दाम्पत्य जीवन की सराहना करना-उसकी तारीफों के पुल बाँधना-शोभा नहीं देता। हम दाम्पत्य सुख के दास हो रहे हैं। हमने इसी को अपने जीवन का लक्ष्य समझ रखा है। इस समय हमें ऐसे व्रतधारियों को, त्यागियों की, परमार्थ-वियों की आवश्यकता है, जो जाति के उद्धार के लिए अपने प्राण तक दे दें। हमारे कविजनों को इन्हीं उच्च और पवित्र भावों को उत्तेजित करना चाहिए। हमारे देश में जन-संख्या जरूरत से ज्यादा हो गई है। हमारी जननी संतान-वृद्धि के भार को अब नहीं सँभाल सकती। विद्यालयों मे, सड़कों पर, गलियों में इतने बालक दिखाई देते हैं कि समझ में नहीं आता, ये क्या करेंगे। हमारे देश में इतनी उपज भी नहीं होती कि सबके लिए एक बार इच्छा-पूर्ण भोजन भी प्राप्त हो। भोजन का अभाव ही हमारे नैतिक