ताक रहे हैं, और तत्क्षण उसका मन अस्थिर हो जाता। जाह्नवी ने कई बार टोका- सोती तो नहीं हो, क्या बात है, रुक क्यों जाती हो, आज तुझे क्या हो गया है बेटी? सहसा उनकी दृष्टि विनयसिंह की और फिरी-उसी समय, जब वह प्रेमातुर नेत्रों से उसकी ओर ताक रहे थे। जाह्नवी का विकसित, शांत मुख-मंडल, तमतमा उठा मानों बाग में आग लग गई। अग्निमय नेत्रों से विनय की ओर देखकर बोलीं-"तुम कब जा रहे हो?"
विनयसिंह-बहुत जल्द।
जाह्नवी-"मैं बहुत जल्द का आशय यह समझती हूँ कि तुम कल प्रातःकाल है प्रस्थान करोगे।"
विनयसिंह-"अभी साथ जानेवाले कई सेवक बाहर गये हुए है।"
जाह्नवी-"कोई चिंता नहीं के पीछे चले जायेंगे, तुम्हें कल प्रस्थान करना होगा।"
विनयसिंह-"जैसी आज्ञा।”
जाह्नवी-"अभी जाकर सब आदमियों को सूचना दे दो। मैं चाहती हूँ कि तुम स्टेशन पर सूर्य के दर्शन करो।"
विनय-"इंदु से मिलने जाना है।"
जाह्नवी-“कोई जरूरत नहीं। मिलने-भेंटने की प्रथा स्त्रियों के लिए है, पुरुषों के लिए नहीं, जाओ।”
विनय को फिर कुछ कहने की हिम्मत न हुई, आहिस्ते से उठे, और चले गये।
सोफी ने साहस करके कहा-"आजकल तो राजपूताने में आग बरसती होगी!"
जाह्नवी ने निश्चयात्मक भाव से कहा-"कर्तव्य कभी आग और पानी की परवा नहीं करता। जाओ, तुम भी सो रहो, सवेरे उठना है।"
सोफी सारी रात बैठी रही। विनय से एक बार मिलने के लिए उसका हृदय तड़फड़ा रहा था-आह! वह कल चले जायँगे, और मैं उनसे बिदा भी न हो सकूँगी। वह बार-बार खिड़की से झाँकती कि कहीं विनय की आहट मिल जाय। छत पर चढ़कर देखा; अन्धकार छाया हुआ था, तारागण उसकी आतुरता पर हँस रहे थे। उसके जी में कई बार प्रबल आवेग हुआ कि छत पर से नीचे बाग में कूद पड़, उनके कम जाऊँ, और कहूँ-मैं तुम्हारी हूँ। आह! अगर संप्रदाय ने हमारे और उनके बीच में बाधा न खड़ी कर दी होती, तो वह इतने चिन्तित क्यों होता, मुझको इतना संकोच क्यों होता, रानी मेरी अवहेलना क्यों करतीं? अगर मैं राजपूतनी होती, ती रानी सहर्ष मुझे स्वीकार करतीं, पर मैं ईसा की अनुचरी होने के कारण त्याज्य हूँ। ईसा और कृष्ण में कितनी समानता है; पर उनके अनुचरों में कितनी विभिन्नता! कैसा अनर्थ है! कौन कह सकता है कि सांप्रदायिक भेदों ने हमारी आत्माओं पर कितना अत्याचार किया है।
ज्यों-ज्यों रात बीतती थी, सोफी का दिल नैराश्य से बैठा जाता था--हाय, मैं यों ही बैठी रहूँगी, और सर्वरा हो जायगा, विनय चले जायेंगे। कोई ऐसा भी तो नहीं,