जिसके हाथों एक पत्र लिलकर भेज दूँ। मेरे ही कारण तो उन्हें यह दंड मिल रहा है। माता का हृदय भी निर्दय होता है। मैं समझी थी, मैं ही अभागिनी हूँ; पर अब मालूम हुआ, ऐमी माताएँ और भी हैं!
तब वह छत पर से उतरी, और अपने कमरे में जाकर लेट रही। नैराश्य ने निद्रा की शरण ली; पर चिन्ता की निद्रा क्षुधावस्था का विनोद है... शान्ति-विहीन और नीरस। जरा ही देर सोई थी कि चौंककर उठ बैठी। सूर्य का प्रकाश कमरे में फैल गया था, और विनयसिंह अपने बीसौं साथियों के साथ स्टेशन जाने के लिए तैयार खड़े थे बाग में हजारों आदमियों की भीड़ लगी हुई थी।
वह तुरन्त बाग में आ पहुँची, और भीड़ को हटाती हुई यात्रियों के सम्मुख आकर खड़ी हो गई। राष्ट्रीय गान हो रहा था, यात्री नंगे सिर, नंगे पैर, एक-एक कुरता पहने, हाथ में लकड़ी लिये, गरदनों में एक-एक थैली लटकाये चलने को तैयार थे। सब-के-सब प्रसन्न-वदन, उल्लास से भरे हुए, जातीयता के गर्व से उन्मत्त थे, जिनको देखकर दर्शकों के मन गौरवान्वित हो रहे थे। एक क्षण में रानी जाह्नवी आई; और यात्रियों के मस्तक पर केशर के तिलक लगाये। तब कुँवर भरतसिंह ने आकर उनके गलों में हार पहनाये। इसके बाद डॉक्टर गंगुली ने चुने हुए शब्दों में उन्हें उपदेश दिया। उपदेश सुनकर यात्री लोग प्रस्थित हुए। जयजयकार की ध्वनि सहस्र-सहस्र कण्ठों से निकलकर वायुमंडल को प्रतिध्वनित करने लगी? स्त्रियों और पुरुषों का एक समूह उनके पीछे-पीछे चला। सोफिया चित्रवत् खड़ी यह दृश्य देख रही थी। उसके हृदय में बार-बार उत्कंठा होती थी, मैं भी इन्हीं यात्रियों के साथ चली जाऊँ, और अपने दुःखित बन्धुओं की सेवा करूँ। उसकी आँखें विनयसिंह की ओर लगी हुई थीं। एकाएक विनयसिंह की आँखें उसकी ओर फिरी; उनमें कितना नैराश्य था, कितनी मर्मवेदना, कितनी विवशता, कितनी विनय! वह सब यात्रियों के पीछे चल रहे थे, बहुत धीरे-धीरे, मानों पैरों में बेड़ी पड़ी हो। सोफिया उपचेतना की अवस्था में यात्रियों के पीछे-पीछे चली, और उसी दशा में सड़क पर आ पहुँची; फिर चौराहा मिला, इसके बाद किसी राजा का विशाल भवन मिला; पर अभी तक सोफी को खबर न हुई कि मैं इनके साथ चली आ रही हूँ। उसे इस समय विनयसिंह के सिवा और कोई नजर ही न आता था। कोई प्रबल आकर्षण उसे खींचे लिये जाता था। यहाँ तक कि वह स्टेशन के समार के चौराहे पर पहुँच गई। अचानक उसके कानों में प्रभु सेवक की आवाज आई, जा बड़े वेग से फिटन दौड़ाये चले आते थे।
प्रभु सेवक ने पूछा—"सोफी, तुम कहाँ जा रही हो? जूते तक नहीं, केवल स्लीपर पहने हो!"
सोफिया पर घड़ों पानी पड़ गया-आह! मैं इस वेश में कहाँ चली आई! मुझे सुधि ही न रही। लजाती हुई बोली-"कहीं तो नहीं?”
प्रभु सेवक—"क्या इन लोगों के साथ स्टेशन तक जाओगी? आओ, गाड़ी पर