थे। चमारों ने तुरंत हल्दी पीसी और उसे गुड़-चूने में मिलाकर उनके कंत्र में लगाया। एक आदमी लपककर पेड़ के पत्ते तोड़ लाया, दो आदमी बैठकर सेंकने लगे। जैनब और रकिया तो ताहिरअली की मरहम-पट्टी करने लगी, बेचारी कुलयूम दरवाजे पर खड़ी रो रही थी। पति की ओर उससे ताका भी न जाता था। गिरने से उनके सिर में चोट आ गई थी। लहू बहकर माथे पर जम गया था। बालों में लटें पड़ गई थीं, मानों किसी चित्रकार के ब्रुश में रंग सूख गया हो। हृदय में शूल उठ रहा था; पर पति के मुख की ओर ताकते ही उसे मूछा-सी आने लगती थी, दूर खड़ी थी; यह विचार भी मन में उठ रहा था कि ये सब आदमी अपने दिल में क्या कहते होंगे! इसे पति के प्रति जरा भी प्रेम नहीं, खड़ी तमाशा देख रही है। क्या करूँ, उनका चेहरा न जाने कैसा हो गया है। वही चेहरा, जिसकी कभी बलाएँ ली जाती थीं, मरने के बाद भयावह हो जाता है, उसकी ओर दृष्टिपात करने के लिए कलेजे को मजबृत करना पड़ता है। जीवन की भाँति मृत्यु का भी सबसे विशिष्ट आलोक मुख ही पर पड़ता है। ताहिरअली की दिन-भर सैक-बाँध हुई, चमारों ने इस तरह दौड़-धूर की, मानी उनका कोई अपना इष्ट-मित्र है। क्रियात्मक सहानुभूति ग्राम-निवासियों का विशेष गुण है। रात को भी कई चमार उनके पास बैठे सेंकते-बाँधते रहे। जेनब और रकिया बार-बार कुल्लूम को ताने देती-“बहन, तुम्हारा दिल भी गजब का है। शौहर का यहाँ बुरा हाल हो रहा है, और तुम यहाँ मजे से बैठी हो। हमारे मियाँ के सिर में जरा-सा दर्द होता था, तो हमारी जान नाखून में समा जातो थी। आजकल की औरतों का कलेजा सचमुच पत्थर का होता है।" कुल्सूम का हृदय इन बाणों से बिंध जाता था; पर यह कहने का साहस न होता था कितुम्हीं दोनों क्यों नहीं चली जाती? आखिर तुम भी तो उन्हीं की कमाई खाती हो, और मुझसे अधिक। किंतु इतना कहती, तो बचकर कहाँ जाती, दोनों उसके गले पड़ जातीं। सारी रात जागती रही। बार-बार द्वार पर जाकर आहट ले आती थी। किसी भाँति रात कटी। प्रातःकाल ताहिरअली की आँखें खुली; दर्द से अब भी कराह रहे थे; पर अब अवस्था उतनी शोचनीय न थी। तकिये के सहारे बैठ गये। कुल्लूम ने उन्हें चमारी से बातें करते सुना। उसे ऐसा जान पड़ा कि इनका स्वर कुछ विकृत हो गया है। चमारों ने ज्यों ही उन्हें होश में देखा, समझ गये कि अब हमारी जरूरत नहीं रहो, अब घरवालो की सेवा-शुश्रूषा का अवसर आ गया। एक-एक करके बिदा हो गये। अब कुल्सूम ने चित्त सावधान किया और पति के पास आ बैठी। ताहिरअली ने उसे देखा, तो क्षीण स्वर में बोले-"खुदा ने मुझे नमकहरामी की सजा दी है। जिनके लिए अपने आका का बुरा चेता, वही अपने दुश्मन हो गये।"
कुल्लम—"तुम यह नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते? जब तक जमीन का मुआमला नय न हो जायगा, एक-न-एक झगड़ा-बखेड़ा रोज होता रहेगा, लोगों से दुश्मनी बढ़ती जायगी। यहाँ जान थोड़े ही देनी है। स्खुदा ने जैसे इतने दिन रोजी दी, वैसे ही फिर देगा। जान तो सलामत रहेगी।"