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रंगभूमि


गई, तो ताहिरअली को पड़े कराहते देखा। कुल्सूम से बोली-"बीबी, गजब का तुम्हारा जिगर है। अरे भले आदमी, जाकर जरा मूँग की दलिया पका दे। गरीब ने रात को कुछ नहीं खाया, इस वक्त भी मुँह में कुछ न जायगा, तो क्या हाल होगा?”

ताहिर-"नहीं, मेरा कुछ खाने को जी नहीं चाहता। आपको इसलिए तकलीफ दी है कि अगर आपके पास कुछ रुपये हों, तो मुझे कर्ज के तौर पर दे दीजिए। मेरे कंधों में बड़ा दर्द है, शायद हड्डी टूट गई है, डॉक्टर को दिखाना चाहता हूँ; मगर उसकी फीस के लिए रुपयों की जरूरत है।"

जैनब-"बेटा, भला सोचो तो, मेरे पास रुपये कहाँ से आयगे, तुम्हारे सिर की कसम खाकर कहती हूँ। मगर तुम डॉक्टर को बुलाओ ही क्यों। तुम्हें सीधे साहब के यहाँ जाना चाहिए। यह हंगामा उन्हीं की बदौलत तो हुआ है, नहीं तो यहाँ हमसे किमी से क्या गरज थी। एक इक्का मँगवा लो और साहब के यहाँ चले जाओ। वह एक रुक्का लिख देंगे, तो सरकारी शिफाखाने में खासी तरह इलाज हो जायगा। तुम्ही सोचो, हमारी हैसियत डॉक्टर बुलाने की है?"

ताहिरअली के दिल में यह बात बैठ गई। माता को धन्यवाद दिया। सोचा, न जाने यही बात मेरी समझ में क्यों नहीं आई। इक्का मँगवाया, लाठी के सहारे बड़ी मुश्किल से उस पर सवार हुए और साहब के बँगले पर पहुँचे।

मिस्टर सेवक, राजा महेंद्रकुमार से मिलने के बाद, कंपनी के हिस्ले बेचने के लिए बाहर चले गये थे और उन्हें लोटे हुए आज तीन दिन हो गये थे। कल बह राजा साहब से फिर मिले थे; मगर जब उनका फैसला सुना, तो बहुत निराश हुए। बहुत देर तक बैठे तर्क-वितर्क करते रहे; लेकिन राजा साइब ने कोई संतोष जनक उत्तर न दिया। निराश होकर आये और मिसेज सेवक से सारा वृनांत कह सुनाया।

मिसेज सेवक को हिदुस्थानियों से चिढ़ थी। यदि इसी देश के अन्न-जल से उनकी सृष्टि हुई थी, पर अपने विचार, हजरत इसा की शरण में आकर, वह हिंदुस्थानियों के अवगुणों से मुक्त हो चुकी थीं। उनके विचार में यहाँ के आदमियों को खुदा ने सज्जनता, सहृदयता, उदारता, शालीनता आदि दिव्य गुणों से संपूर्णतः बंचित रग्बा है। यह यारपीय सभ्यता की भक्त थीं और आहार-व्यवहार में उमी का अनुसरण करती थी। खान-पान, बेप-भूषा, रहन सहन, सब आँगरेजी थी; मजबूरी केवल अपने साँवले रंग से थी। साबुन के निरंतर प्रयोग और अन्य रासायनिक पदार्थों का व्यवहार करने पर भी मनोकामना पूरी होती न थी। उनके जीन की एकमात्र यही अभिलाषा थी कि हम ईसाइयों की श्रेणी से निकलकर अँगरेजी में जा मिले, हमें लोग साहब समझें, हमारा रब्त-जब्त अँगरेजों से हो, हमारे लड़कों की शादियाँ एंग्लो इंडियन या कम-से-कम उच्च श्रेणा के यूरेशियन लोगों से हो। सोफी की शिक्षा-दीक्षा अँगरेजी ढंग पर हुई थी; किंतु वह माता के बहुत आग्रह करने पर भी अँगरेजी दास्तों और पार्टियों में शरीक होती थी, और नाच से तो उसे घृणा ही था। किंतु मिसेज सेवक इन अवसरों को हाथ से न