पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/१२१

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भैरो पासी अपनी माँ का सपूत बेटा था। यथासाध्य उसे आराम से रखने की चेष्टा करता रहता था। इस भय से कि कहीं बहू सास को भूखा न रखे, वह उसकी थाली अपने सामने परसा लिया करता था और उसे अपने साथ ही बिठाकर खिलाता था। बुढ़िया तंबाकू पीती थी। उसके वास्ते एक सुन्दर, पीतल से मढ़ा हुआ, नारियल लाया था। आप चाहे जमीन पर सोये, पर उसे खाट पर सुलाता। कहता, इसने न जाने कितने कष्ट झेलकर मुझे पाला-पोसा है; मैं इससे जीते-जी कभी उरिन नहीं हो सकता। अगर माँ का सिर भी दर्द करता, तो बेचैन हो जाता, ओझे-सयाने बुला लाता। बुढ़िया को गहने-कपड़े का भी शौक था। पति के राज में जो सुख न पाये थे, वे बेटे के राज में भोगना चाहती थी । भैरो ने उसके लिए हाथों के कड़े, गले की हँसली और ऐसी ही कई चीज बनवा दी थीं। पहनने के लिए मोटे कपड़ों की जगह कोई रंगीन छीट लाया करता था। अपनी स्त्री को ताकीद करता रहता था कि अम्माँ को कोई तकलीफ न होने पाये। इस तरह बुढ़िया का मन बढ़ गया था। जरा-सी कोई बात इच्छा के विरुद्ध होती, तो रूठ जाती और बहू को आड़े हाथों लेती। बहू का नाम सुभागी था। बुढ़िया ने उसका नाम अभागी रख छोड़ा था। बट्ट ने जरा चिलम भरने में देर की, चारपाई बिछाना भूल गई, या मुँह से निकलते ही उसका पैर दबाने या सिर की जुएँ निकालने न आ पहुँची, तो बुढ़िया उसके सिर हो जाती। उसके बाप और भाइयों के मुँह में कालिख लगाती, सबों की दाढ़ियाँ जलाती, और उसे गालियों ही से संतोष न होता, ज्यों ही भैरो दूकान से आता, एक-एक की सौ-सौ लगाती। भैरो सुनते ही जल उठता, कभी जली-कटी बातों से और कभी डंडे से स्त्री की खबर लेता। जगधर से उसकी गहरी मित्रता थी। यद्यपि भैरो का घर वस्ती के पश्चिम सिरे पर था, और जगधर का घर पूर्व सिरे पर, किंतु जगधर को यहाँ बहुत आमद-रफ्त थी। यहाँ मुफ्त में ताड़ी पीने को मिल जाती थी, जिसे मोल लेने के लिए उसके पास पैसे न थे। उसके घर में खानेवाले बहुत थे, कमाने-वाला अकेला वही था। पाँच लड़कियाँ थीं, एक लड़का और स्त्री। खोंचे की बिक्री में इतना लाभ कहाँ कि इतने पेट भरे और ताड़ी-शराब भी पिये! वह भैरो की हाँ-में-हाँ मिलाया करता था। इसलिए सभागी उससे जलती थी।

दो-तीन साल पहले की बात है, एक दिन, रात के समय, भैरो और जगधर बैठे हुए ताड़ी पी रहे थे। जाड़ों के दिन थे। बुढ़िया खा-पीकर, अँगीठी सामने रखकर, आग ताप रही थी। भैरो ने सुभागी से कहा-“थोड़े-से मटर भून ला। नमक, मिर्च, प्याज भी लेती आना।" ताड़ी के लिए चिखने की जरूरत थी। सुभागी ने मटर तो भूने, लेकिन प्याज घर में न था। हिम्मत न पड़ी कि कह दे-"प्याज नहीं है।" दौड़ी हुई कुँजड़े की दूकान पर गई। कुँजड़ा दूकान बन्द कर चुका था। सुभागी ने बहुत चिरौरी की,