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रंगभूमि


कोई लोहे का शिकंजा है। कितना ही जोर मारता, पर शिकंजा जरा भी ढीला न होता था। सुभागी ने मौका पाया, तो भागी। अब भैरो जोर-जोर से गालियाँ देने लगा। मुहल्लेवाले यह शोर सुनकर आ पहुँचे। नायकराम ने मजाक करके कहा-"क्यों सूरे, अच्छी सूरत देखकर आँखें खुल जाती है क्या? मुहल्ले ही में?"

सूरदास-"पण्डाजी, तुम्हें दिल्लगी सृझी है और यहाँ मुँह में कालिख लगाई जा रही है। अंधा था, अपाहिज था, भिखारी था, नीच था, पर चोरी-बदमासी के इलजाम से तो बचा हुआ था! आज वह इलजाम भी लग गया।"

बजरंगी-"आदमी जैसा आप होता है, वैसा ही दूसरों को समझता है।"

भैरो—“तुम कहाँ के बड़े साधृ हो। अभी आज ही लाठी चलाकर आये हो। मैं दो साल से देख रहा हूँ, मेरी घरवाली इससे आकर अकेले में घंटों बातें करती है।

जगधर ने भी उसे यहाँ से रात को आते देखा है। आज ही, अभी, उसके पीछे मुझसे लड़ने को तैयार था ।"

नायकराम-"सुभा होने की बात ही है, अंधा आदमी देवता थोड़े ही होता है, और फिर देवता लोग भी तो काम के तीर से नहीं बचे, सूरदास तो फिर भी आदमी है, और अभी उमर ही क्या है?"

ठाकुरदीन-"महाराज, क्यों अंधे के पीछे पड़े हुए हो। चलो, कुछ भजन-भाव हो।"

नायकराम-"तुम्हें भजन-भाव सूझता है, यहाँ एक भले आदमी की इज्जत का मुआमला आ पड़ा है। भैरो, हमारी एक बात मानो, तो कहें। तुम सुभागी को मारते बहुत हो, इससे उसका मन तुमसे नहीं मिलता। अभी दूसरे दिन बारी आती है, अब महीने में दो बार से ज्यादा न आने पावे।"

भैरो देख रहा था कि मुझे लोग बना रहे हैं। तिनककर बोला-"अपनी मेहरिया है, मारते-पीटते हैं, तो किसी का साज्ञा है? जो घोड़ी पर कभी सवार ही नहीं हुआ, वह दूसरों को सवार होना क्या सिखायेगा। वह क्या जाने, औरत कैसे काबू में रहता है।"

यह व्यंग्य नायकराम पर था, जिसका अभी तक विवाह नहीं हुआ था। घर में धन था, यजमानों की बदौलत किसी बात की चिंता न थी, किंतु न जाने क्यों अभी तक उसका विवाह नहीं हुआ था। वह हजार-पाँच सौ रुपये से गम ग्वाने को तैयार था; पर कहीं शिप्पा न जमता था। मेरो ने समझा था, नायकराम दिल में कट जायँगे; मगर वह छँटा हुआ शहरी गुंडा ऐसे व्यंग्यों को कब ध्यान में लाता था। बोला-'कहो बजरंगी, इसका कुछ जवाब दो, औरत कैसे बस में रहतो है?”

बजरंगी-"मार-पीट से नन्हीं सा लड़का तो बस में आता ही नहीं, औरत क्या बस में आयेगी।"

भैरो–“बस में आये औरत का बाप, औरत किस खेत की मूली है! मार से भूत भागता है।"

बजरंगी-"तो औरत भी भाग जायगी, लेकिन काबू में न आयेगी।"