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रंगभूमि


दास में संग्राम छिड़ गया। बुढ़िया ने दोपहर को नहाया था, सुभागी उसकी धोती छाँटना भूल गई। गरमी के दिन थे ही, रात को ९ बजे बुढ़िया को फिर गरमी मालूम हुई। गरमियों में दिन में दो बार स्नान करती थी, जाड़ों में दो महीने में एक बार! जब वह नहाकर धोती माँगने लगी, तो सुभागी को याद आई। काटो तो बदन में लहू नहीं। हाथ जोड़कर बोली-“अम्माँ, आज धोती धोने की याद नहीं रही, तुम जरा देर मेरो धोती पहन लो, तो मैं उसे छाँटकर अभी सुखाये देती हूँ।"

बुढ़िया इतनी क्षमाशील न थी, हजारों गालियाँ सुनाई और गीली धोती पहने बैठी रही। इतने में भैरो दूकान से आया और सुभागी से बोला-'चल्दी खाना ला, आज संगत होनेवाली है। आओ अम्माँ, तुम भी खा लो।"

बुढ़िया बोली-"नहाकर गीली धोती पहने बैठी हूँ। अब अपने हाथों धोती धो लिया करूँगी।”

भैरो-"क्या इसने धोती नहीं धोई?"

बुढ़िया-"वह अब मेरी धोतो क्यों धोने लगी। घर की मालकिन है। यही क्या कम है कि एक रोटी खाने को दे देती है!”

सुभागी ने बहुत कुछ उज्र किया; किन्तु भैरो ने एक न सुनी, डंडा लेकर मारने दौड़ा। सुभागी भागी और आकर सूरदास के घर में घुस गई। पीछे-पीछे भैरो भी वहीं पहुँचा। झोपड़े में घुसा और चाहता था कि सुभागी का हाथ पकड़कर खींच ले कि सूरदास उठकर खड़ा हो गया और बोला-"क्या बात है भैरो, इसे क्यों मार रहे हो?”

भैरो गर्म होकर बोला-"द्वार पर से हट जाओ, नहीं तो पहले तुम्हारी हड्डियाँ तोड़ूँगा, सारा बगुलाभगतपन निकल जायगा। बहुत दिनों से तुम्हारा रंग देख रहा हूँ, आज सारी कसर निकाल लूँगा।"

सूरदास-“मेरा क्या छैलापन तुमने देखा? बस, यही न कि मैंने सुभागी को घर से निकाल न ही दिया?"

भैरो-"बस, अब चुप ही रहना। ऐसे पापी न होते, तो भगवान् ने आँखें क्यों फोड़ दी होती। भला चाहते हो, तो सामने से हट जाओ।"

सूरदास-"मेरे घर में तुम उसे न मारने पाओगे; यहाँ से चली जाय, तो चाहे जितना मार लेना।" भैरो-"हटता है सामने से की नहीं?"

सूरदास-"मैं अपने घर यह उपद्रव न मचाने दूँगा।”

भैरो ने क्रोध में आकर सूरदास को धक्का दिया। बेचारा बेलाग खड़ा था, गिर पड़ा, पर फिर उठा और भैरो की कमर पकड़कर बोला-“अब चुपके-से चले जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा।"

सूरदास था तो दुबला-पतला, पर उसकी हड्डियाँ लोहे की थीं। बादल-बूंदी, सरदी-गरमी झेलते-झेलते उसके अंग ठोस हो गये थे। भैरो को ऐसा ज्ञात होने लगा, मानों