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रंगभूमि


किन्तु जगाधर और भैरो दोनों के मन में ईर्ष्या का फोड़ा पक रहा था। जगधर कहता था-"मैंने तो समझा था, सहज में पाँच रुपये मिल जायँगे; नहीं तो क्या कुत्ते ने काटा था कि उससे भिड़ने जाता। आदमी काहे को है, लोहा है।"

भैरो-“मैं उसकी ताकत की परीच्छा कर चुका हूँ। ठाकुरदोन सच कहता है, उसे किसी देवता का इंष्ट है।"

जगधर-"इट-विष्ट कुछ नहीं है, यह सब बेफिकरी है। हम-तुम गृहस्थी के जंजाल में फंसे हुए हैं, नोन-तेल लकड़ी की चिन्ता सिर पर सवार रहती है, घाटे-न के के फेर में पड़े रहते हैं । उसे कौन चिन्ता है? मजे से जो कुछ मिल जाता है, खाना है और मोठी नींद सोता है। हमको-तुमको रोटी-दाल भी दोनों जून नसीब नहीं होती। उसे क्या क्रमी है, किसी ने चावल दिये, कहीं मिठाई पा गया, घी-दूध बजरंगी के घर से मिल हो जाता है। बल तो खाने से होता है।"

भैरो-"नहीं, यह बात नहीं है। नसा खाने से बल का नास हो जाता है।"

जगधर-"कैसी उलटी बातें करते हो , ऐसा होता, तो फौज में गारों को बाराँडी क्यों पिलाई जाती। अँगरेज सभी सराब पीते हैं, तो क्या कमजोर होते हैं।"

भैरो-"आज सुभागी आती है, तो गला दबा देता हूँ।”

जगधर-"किसी के घर छिपी बैठी होगी।"

भैरो-“अंधे ने मेरी आबरू बिगाड़ दी। बिरादरी में यह बात फैलेगी, तो हुका बंद हो जायगा, भात देना पड़ जायगा।"

जगवर-"तुम्हीं तो हिंढोरा पीट रहे हो। यह नहीं, पटकनो खाई थी, तो चुके से घर चले आते। सुभागो घर आती, तो उससे समझते। तुम लगे वहीं दुहाई देने।"

भैरो-"इस अंधे को मैं ऐसा कपटी न समझता था, नहीं तो अब तक कभी उसका मजा चखा चुका होता। अब उस चुडैल को घर न रखूँगा। चमार के हाथों वह बे-आवरूई!"

जगधर-"अब इससे बड़ी और क्या बदनामो होगो, गला काटने का काम है।"

भैरो-"बस, यही मन में आता है कि चलकर, गंडासा मारकर काम तमाम कर दूँ। लेकिन नहीं, मैं उसे खेला-खेलाकर मारूँगा। सुभागी का दास नहीं है। सारा तूफान इसी ऐबी अंधे का खड़ा किया हुआ है।"

जगधर-“दोस दोनों का है।"

भैरो-"लेकिन छेड़छाड़ तो पहले मर्द ही करता है। उससे तो अब मुझे कोई वास्ता नहीं रहा, जहाँ चाहे जाय, जैसे चाहे रहे। मुझे तो अब इस अंधे से भुगतना है। सूरत से कैसा गरीब मालूम होता है, जैसे कुछ जानता ही नहीं, और मन में इतना काट भरा हुआ है। भीख माँगते दिन जाते हैं, उस पर भी अभागे की आँख नहीं खुलती। जगधर, इसने मेरा सिर नीचा कर दिया, मैं दूसरों पर हँसा करता था, आ जमाना मुझ पर हँसेगा। मुझे सबसे बड़ा माल तो यह है कि अभागिन गई भो, तो चमार के साथ गई।