अगर किसी ऐसे आदमी के साथ जाती, जो जात-पात में, देखने-सुनने में, धन-दौलत
मुझसे बढ़कर होता, तो मुझे इतना रंज न होता। जो सुनेगा, अपने मन में यही कहेगा कि मैं इस अंधे से भी गया-बीता हूँ।"
जगधर-"औरतों का सुभाव कुछ समझ में नहीं आता। नहीं तो, कहाँ तुम और कहाँ वह अंधा, मुँह पर मक्खियाँ भिनका करती हैं, मालूम होता, जूते खाकर आया है।"
भैरो-“और बेहया कितना बड़ा है! भीख माँगता है, अंधा है; पर जब देखो, हँसता ही रहता है। मैंने उसे कभी रोते ही नहीं देखा।”
जगधर-वर में रुपये गड़े हैं, रोये उसकी बला। भीख तो दिखाने को माँगता है।"
भैरो-“अब रोयेगा। ऐसा रुलाऊँगा कि छठी का दूध याद आ जायगा।" यो बातें करते हुए दोनों अपने-अपने घर गये। रात के दो बजे होंगे कि अकस्मात् सूरदास की झोपड़ी से ज्वाला उठी। लोग अपने-अपने द्वारों पर सो रहे थे। निद्रावस्था में भी उपचेतना जागती रहती है। दम-के-दम में सैकड़ों आदमी जमा हो गये। आसमान पर लाली छाई हुई थी, ज्वालाएँ लपक-लपककर आकाश की ओर दौड़ने लगीं। कभी उनका आकार किसी मंदिर के स्वर्ण-कलश का-सा हो जाता था, कभी वे वायु के झोंकों से यो कंपित होने लगती थीं, मानों जल में चाँद का प्रतिबिंब है। आग बुझाने का प्रयत्न किया जा रहा था; पर झोपड़े की आग, ईर्ष्या की आग की भाँति कभी नहीं बुझती। कोई पानी ला रहा था, कोई यों ही शोर मचा रहा था; किंतु अधिकांश लोग चुपचाप खड़े नैराश्य-पूर्ण दृष्टि से अग्निदाह को देख रहे थे, मानों किसी मित्र की चिताग्नि है। सहसा सूरदास दौड़ा हुआ आया, और चुपचाप ज्वाला के प्रकाश में खड़ा हो गया।
बजरंगी ने पूछा—"यह कैसे लगी सूरे, चूल्हे में तो आग नहीं छोड़ दी थी?"
सूरदास—"झोपड़े में जाने का कोई रास्ता नहीं है?"
बजरंगी—"अब तो अंदर-बाहर सब एक हो गया। दीवारें जल रही हैं।"
सूरदास—"किसी तरह नहीं जा सकता?"
बजरंगी—"कैसे जाओगे? देखते नहीं हो, यहाँ तक लपटें आ रही हैं।"
जगधर--"सूरे, क्या आज चूल्हा टंडा नहीं किया था?”
नायकराम-"चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुसमनों का कलेजा कैसे ठंडा होता।"
जगधर-“पण्डाजी, मेरा लड़का काम न आये, अगर मुझे कुछ भी मालूम हो, तुम मुझ पर नाहक सुभा करते हो।"
नायकराम-“मैं जानता हूँ, जिसने लगाई है। बिगाड़ न दूँ, तो कहना।"
ठाकुरदीन-"तुम क्या बिगाड़ोगे, भगवान आप ही बिगाड़ देंगे। इसी तरह जक मेरे घर में चोरी हुई थी, तो सब स्वाहा हो गया था।"
जगधर-"जिसके मन में इतनी खुटाई हो, भगवान उसका सत्यानास कर दें।"
सूरदास-"अब तो लपट नहीं आती।”
बजरंगी-"हाँ, फूस जल गया, अब धरन जल रही है।"