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रंगभूमि


तरह खुश करूँगा। यह लो (जेब से पाँच रुपये निकालकर), मैंने तुम्हें मामूली भिखारी समझ लिया था, उस अपमान को क्षमा करो।"

सूरदास—"हुजूर, मैं रुपये लेकर क्या करूँगा? धर्म के नाते दो-चार पैसे दे दीजिए, तो आपका कल्यान मनाऊँगा। और किसी नाते से मैं रुपये न लूँगा।"

जॉन सेवक—"तुम्हें दो-चार पैसे क्या दूँ? इसे ले लो, धर्मार्थ ही समझो।"

सूरदास—"नहीं साहब, धर्म में आपका स्वार्थ मिल गया है, अब यह धर्म नहीं रहा।"

जॉन सेवक ने बहुत आग्रह किया, किंतु सूरदास ने रुपये नहीं लिये। तब वह हारकर गाड़ी पर जा बैठे।

मिसेज़ सेवक ने पूछा--"क्या बातें हुई?"

जॉन सेवक—"है तो भिखारी, पर बड़ा घमंडी है। पाँच रुपये देता था, न लिये।"

मिसेज़ सेवक—"है कुछ आशा?"

जॉन सेवक—"जितना आसान समझता था, उतना आसान नहीं है।" गाड़ी तेज हो गई।