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रंगभूमि


न रखें मैं तो यह सब व्यवहार नहीं जानता। यहाँ तो ईट का जवाब पत्थर से देना सीखा है।"

बजरंगी—“साहब लोगों का यही दस्तूर है। पहले तो मारते हैं, और जब देखते हैं कि अब हमारे ऊपर भी मार पड़ा चाहती है, तो चट कहते हैं—माफ कर दो; यह नहीं सोचते कि जिसने मार खाई है, उसे बिना मारे कैसे तसकीन होगी।"

जॉन सेवक—"तुम्हारा यह कहना ठीक है, लेकिन यह समझ लो कि क्षमा बदले के भय से नहीं माँगी जाती। भय से आदमी छिप जाता है, दूसरों की मदद माँगने दौड़ता है, क्षमा नहीं माँगता! क्षमा आदमी उसी वक्त माँगता है, जब उसे अपने अन्याय और बुराई का विश्वास हो जाता है, और जब उसकी आत्मा उमे लज्जित करने लगती है। प्रभु सेवक से तुम माफी माँगने को कहो, तो कभी न राजी होगा। तुम उसकी गरदन पर तलवार चलाकर भी उसके मुँह से क्षमा याचना का एक शब्द नहीं निकलवा सकते। अगर विश्वास न हो, तो इसकी परीक्षा कर लो। इसका कारण यही है कि वह समझता है, मैंने कोई ज्यादती नहीं की। वह कहता है, मुझे उन लोगों ने गालियाँ दी। लेकिन मैं इसे किसी तरह नहीं मान सकता कि आपने उसे गालियाँ दी होगी। शरीफ आदमी न गालियाँ देता है, न गालियाँ सुनता है। मैं जो क्षमा माँग रहा हूँ, वह इसलिए कि मुझे यहाँ सरासर उसकी ज्यादती मालूम होती है। मैं उसके दुर्व्यवहार पर लजित हूँ, और मुझे इसका दुःख है कि मैंने उसे यहाँ क्यों आने दिया। सच पूछिए, तो अब मुझे यही पछतावा हो रहा है कि मैंने इस जमीन को लेने की बात ही क्यों उठाई। आप लोगों ने मेरे गुमास्ते को मारा, मैंने पुलिम में सट तक न की। मैंने निश्चय कर लिया कि अब इस जमीन का नाम न लूँगा। मैं आप लोगों को कष्ट नहीं देना चाहता, आपको उजाड़-कर अपना घर नहीं बनाना चाहता। अगर तुम लोग स्तुदी से दोगे, तोलूँगा, नहीं ना छोड़ दूँगा । किसी का दिल दुखाना सबसे बड़ा अधर्म कहा गया है। जब तक आप लोग मुझे क्षमा न करेंगे, मेरी आत्मा को शांति न मिलेगी।"

उदंडता मरलता का केवल उग्र रूप है। सादर के मधुर वाक्यों ने नायकराम का क्रोध शांत कर दिया। कोई दूसरा आदमी इतनी ही आसानी से उसे साहब की गरदन पर तलवार चलाने के लिए उत्तेजित कर सकता था; संभव था, प्रभु सेवक को देवकर उसके सिर पर खून सवार हो जाता; पर इस समय साहब की वाती ने उसे मंत्रमुग्ध—गा कर दिया। बोला—"कहो बजरंगो, क्या कहते हो?"

बजरंगी—"कहना क्या है, जो अपने सामने मस्तक नवाये, उनके सामने मस्तक नवाना ही पड़ता है। साहब यह भी तो कहते हैं कि अब हम इस जमीन से कोई सरोकार न रखेंगे, तो हमारे और इनके बीच में झगड़ा ही क्या रहा।"

जगधर—"हाँ, झगड़े का मिट जाना ही अच्छा है। बैर—बिरोध से किसी का भला नहीं होता।"

भैरो—"छोटे साहब को चाहिए कि आकर पण्डाजी से खता माफ करावें। अब वह