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रंगभूमि


उठा, लकड़ी सँभाली, और टटोलता हुआ बजरंगी अहीर के घर आया, जो उसके झोपड़े के पास ही था। बजरंगी खाट पर बैठा नारियल पी रहा था। उसकी स्त्री जमुनी खाना पकाती थी। आँगन में तीन भैंसें और चार-पाँच गायें चरनी पर बँधी हुई चारा खा रही थीं। बजरंगी ने कहा--"कैसे चले सूरे? आज बग्घी पर कौन लोग बैठे तुमसे बातें कर रहे थे।"

सूरदास-"वही गोदाम के साहब थे।”

बजरंगी-"तुम तो बहुत दूर तक गाड़ी के पीछे दौड़े, कुछ हाथ लगा?"

सूरदास-"पत्थर हाथ लगा। ईसाइयों में भी कहीं दया-धरम होता है। मेरी वही जमीन लेने को कहते थे।"

बजरंगी-"गोदाम के पीछेवाली न?"

सूरदास-"हाँ वही, बहुत लालच देते रहे, पर मैंने हामी नहीं भरी।"

सूरदास ने सोचा था, अभी किसी से यह बात न कहूँगा, पर इस समय दूध लेने के लिए कुछ खुशामद ज़रूरी थी। अपना त्याग दिखाकर सुखरू बनना चाहता था।

बजरंगी--"तुम हामी भी भरते, तो यहाँ कौन उसे छोड़े देता था। तीन-चार गाँवों के बीच में वही तो इतनी जमीन है। वह निकल जायगी, तो हमारी गाय और भैंसे कहाँ जायँगी?"

जमुनी-“मैं तो इन्हीं के द्वार पर सबों को बाँध आती।"

सूरदास--"मेरी जान निकल जाय, तब तो बेचूँ ही नहीं, हज़ार-पाँच सौ की क्या गिनती! भौजी, एक घूट दूध हो तो दे दे। मिठुआ खाने बैठा है। रोटी और गुड़ छूता ही नहीं, बस, दूध-दूध की रट लगाये हुए है। जो चीज़ घर में नहीं होती, उसी के लिए जिद करता। दूध न पायेगा तो बिना खाये ही सो रहेगा।"

बजरंगी-"ले जाओ, दूध का कौन अकाल है। अभी दुहा है। घीसू की माँ, एक कुल्हिया दूध दे दे सूरे को।

जमुनी-"जरा बैठ जाओ सूरे, हाथ खाली हो, तो दूँ।"

बजरंगी-"वहाँ मिठुआ खाने बैठा है, तैं कहती है, हाथ खाली हो तो दूँ। तुझसे न उठा जाय, तो मैं आऊँ।"

जमुनी जानती थी कि यह बुद्धू दास उठेंगे, तो पाव के बदले आध सेर दे डालेंगे। चटपट रसोई से निकल आई। एक कुल्हिया में आधा पानी लिया, ऊपर से दूध डालकर सूरदास के पास आई, और विषाक्त हितैषिता से बोली-“यह लो, इस लौंडे की जीभ तुमने ऐसी बिगाड़ दी है कि बिना दूध के कौर ही नहीं उठाता। बाप जीता था, तो भर-पेट चने भी न मिलते थे, अब दूध के बिना खाने ही नहीं उठता।"

सूरदास-"क्या करूँ भाभी, रोने लगता है, तो तरस आता है।"

जमुनी-"अभी इस तरह पाल-पोस रहे हो कि एक दिन काम आयेगा, मगर देख