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रंगभूमि


लेना, जो चुल्लू-भर पानी को भी पूछे। मेरी बात गाँठ बाँध लो। पराया लड़का कभी अपना नहीं होता। हाथ-पाँव हुए, और तुम्हें दुत्कारकर अलग हो जायगा। तुम अपने लिए साँप पाल रहे हो।"

सूरदास-"जो कुछ मेरा धरम, किये देता हूँ। आदमी होगा, तो कहाँ तक जस न मानेगा। हाँ, अपनी तकदीर ही खोटी हुई, तो कोई क्या करेगा। अपने ही लड़के क्या बड़े होकर मुँह नहीं फेर लेते?"

जमुनी-"क्यों नहीं कह देते, मेरी भैंसे चरा लाया करे। जवान तो हुआ, क्या जनम-भर नन्हाँ ही बना रहेगा? घीसू ही का जोड़ी-पारी तो है। मेरी बात गाँठ बाँध लो। अभी से किसी काम में न लगाया, तो खिलाड़ी हो जायगा। फिर किसी काम में उसका जी न लगेगा। सारी उमर तुम्हारे ही सिर फुलौरियाँ खाता रहेगा।"

सूरदास ने इसका कुछ जवाब न दिया। दूध की कुल्हिया ली, और लाठी से टटोलता हुआ घर चला।मिट्ठू जमीन पर सो रहा था। उसे फिर उठाया, और दूध में रोटियाँ भिगोकर उसे अपने हाथ से खिलाने लगा। मिट्ठू नींद से गिरा पड़ता था, पर कौर सामने आते ही उसका मुँह आप-ही-आप खुल जाता। जब वह सारी रोटियाँ खा चुका, तो सूरदास ने उसे चटाई पर लिटा दिया, और हाँडी से अपनी पँचमेल खिचड़ी निकालकर खाई। पेट न भरा, तो हाँडी धोकर पी गया। तब फिर मिट्ठू को गोद में उठाकर बाहर आया, द्वार पर टट्टी लगाई और मंदिर की ओर चला।

यह मंदिर ठाकुरजी का था, बस्ती के दूसरे सिरे पर। ऊँची कुरसी थी। मंदिर के चारों तरफ तीन-चार गज का चौड़ा चबूतरा था। यही मुहल्ले की चौपाल थी। सारे दिन दस-पाँच आदमी यहाँ लेटे या बैठे रहते थे। एक पका कुआँ भी था, जिस पर जगधर नाम का एक खोंचेवाला बैठा करता था। तेल की मिठाइयाँ, मूँगफली, रामदाने के लड्ड आदि रखता था। राहगीर आते, उससे मिठाइयाँ लेते, पानी निकाल-कर-पीते, और अपनी राह चले जाते। मन्दिर के पुजारी का नाम दयागिरि था, जो इसी मंदिर के समीप एक कुटिया में रहते थे। सगुण ईश्वर के उपासक थे, भजन-कीर्तन को मुक्ति का मार्ग समझते थे, और निर्गुण को ढोंग कहते थे। शहर के पुराने रईस कुँअर भरतसिंह के यहाँ से मासिक वृत्ति बँधी हुई थी। इसी से ठाकुरजी का भोग लगता था। बस्ती से भी कुछ-न-कुछ मिल ही जाता था। निःस्पृह आदमी था, लोभ छू भी नहीं गया था, सन्तोष और धीरज का पुतला था। सारे दिन भगवत्-भजन में मग्न रहता था। मंदिर में एक छोटी-सी संगत थी। आठ-नौ बजे रात को, दिन-भर के काम-धन्धे से निवृत्त होकर, कुछ भक्तजन जमा हो जाते थे, और घंटे-दो-घंटे भजन गाकर चले जाते थे। ठाकुरदीन ढोल बजाने में निपुण था, बजरंगी करताल बजाता था, जगधर को तबूरे में कमाल था, नायकराम और दयागिरि सारंगी बजाते थे। मजीरे-वालों की संख्या घटती-बढ़ती रहती थी। जो और कुछ न कर सकता, वह मजीरा ही बजाता था। सूरदास इस संगत का प्राण था। वह ढोल, मजीरे, करताल, सारंगी, तँबूरा