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रंगभूमि

प्रभु सेवक-"मैंने काव्य-साहित्य तुमसे बहुत ज्यादा देखा है; पर मुझे कहीं यह उपमा नहीं दिखाई दी।"

सोफिया--"खैर, हो सकता है, मुझी को याद न होगा। कविता बुरी नहीं है।"

प्रभु सेवक-"अगर कोई दूसरा कवि यह चमत्कार दिखा दे, तो उसकी गुलामी करूँ।”

सोफिया-"तो मैं कहूँगी, तुम्हारी निगाह में अपनी स्वाधीनता का मूल्य बहुत ज्यादा नहीं है।"

प्रभु सेवक-"तो में भी यही कहूँगा कि कवित्व के रसास्वादन के लिए अभी तुम्हें बहुत अभ्यास करने की जरूरत है।”

सोफिया--"मुझे अपने जीवन में इससे अधिक महत्त्व के काम करने हैं। आजकल घर के क्या समाचार हैं?"

प्रभु सेवक-"वही पुरानी दशा चली आती है। मैं तो आजिज आ गया हूँ। पापा को अपने कारखाने की धुन लगी हुई है, और मुझे उस काम से घृणा है। पापा और मामा, दोनों हरदम भुनभुनाते रहते हैं। किसी का मुँह ही नहीं सीधा होता। कहीं ठिकाना नहीं मिलता, नहीं तो इस मामा के घोंसले में एक दिन भी न रहता। कहाँ जाऊँ, कुछ समझ में नहीं आता।”

सोफिया-"बड़े आश्चर्य की बात है कि इतने गुणी और विद्वान् होकर भी तुम्हें अपने निर्वाह का कोई उपाय नहीं सूझता! क्या कल्पना के संसार में आत्मसम्मान का कोई स्थान नहीं है?"

प्रभु सेवक-"सोफी, मैं और सब कुछ कर सकता हूँ, पर गृह-चिंता का बोझ नहीं उठा सकता। मैं निर्द्वन्द्व, निश्चित, निर्लिप्त रहना चाहता हूँ। एक सुरम्य उपवन में, किसी सघन वृक्ष के नीचे, पक्षियों का मधुर कलरव सुनता हुआ, काव्य-चिंतन में मन पड़ा रहूँ, यही मेरे जीवन का आदर्श है।"

सोफिया--"तुम्हारी जिंदगी इसी भाँति स्व न देखने में गुजरेगी।"

प्रभु सेवक-"कुछ हो, चिंता से तो मुक्त हूँ, स्वच्छंद तो हूँ!"

सोफिया-"जहाँ आत्मा और सिद्वांतों की हत्या होती हो, वहाँ से स्वच्छंदता कोसों भागती है। मैं इसे स्वच्छंदता नहीं कहती, यह निर्लजता है। माता-पिता की निर्दयता कम पीड़ाजनक नहीं होतो, बालक दूसरों का अत्याचार इतना असह्य नहीं होता, जितना माता-पिता का।"

प्रभु सेवक-"उँह, देखा जायगा, सिर पर जो आ जायगी, झेल लूँगा, मरने के पहले ही क्यों रोऊँ?"

यह कहकर प्रभु सेवक ने पाँडेपुर की घटना बयान की और इतनी डोंगें मारी कि सोफी चिढ़कर बोली- "रहने भी दो, एक गँवार को पोट लिया, तो कौन-सा बड़ा काम