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रंगभूमि


था। उसे जाह्नवी पर क्रोध न था। उसे उन पर असीम श्रद्धा हो रही थी। कितना उच्च और पवित्र उद्देश्य है! वास्तव में मैं ही दूध की मची हूँ, मुझको निकल जाना चाहिए। लेकिन रानी का अंतिम आदेश उसके लिए सबसे कड़वा ग्रास था। वह योगिनी बन सकती थी; पर प्रेम को कलंकित करने की कल्पना ही से उसे घणा होती थी। उसकी दशा उस रोगी की-सी थी, जो किसी बाग में सैर करने जाब और फल तोड़ने के आपराध में पकड़ लिया जाय। विनय के त्याग ने उसे उनका भक्त बना दिया, भक्ति ने शीघ्र ही प्रेम का रूप धारण किया और वही प्रेम उसे बलात् नारकीय अंधकार की ओर खींचे लिये जता था। अगर वह हाथ-पैर छुड़ाती है, तो भव है-वह इसके आगे कुछ न सोच सकी। विचार-शक्ति शिथिल हो गई। अंत में सारी चिताएँ, सारी ग्लानि, सारा नैराश्य, सारी विडंबना एक ठंडो मॉल में मिलीन हो गई।

शाम हो गई थी। सोफिया मन-मारे उदाम बैठी बाग की तरफ टकटकी लगाये ताक रही थी, मानों कोई विधवा पति-शोक में मग्न हो। सहमा प्रभु सेवक ने कमरे में प्रवेश किया।

फया ने प्रभु सेवक से कोई बात न की। चुपचाप अपनी जगह पर मर्तिवत् बैठी रही। वह उस दशा को पहुंच गई थी, जब सहानुभूति से भी अरुचि हो जाती है। नैराश्य की अंतिम अवस्था विरक्ति होती है।

लेकिन प्रभु सेवक अपनी नई रचना सुनाने के लिए इतने उत्सुक हो रहे थे कि सोफी के चेहरे की ओर उनका ध्यान ही न गया। आते-ही-आने बोले-“सोफी, देखो, मैंने आज रात को यह कविता लिखो है। जरा ध्यान देकर सुनना। मैंने अभी कुँवर साहब को सुनाई है। उन्हें बहुत आनंद आया।”

यह कहकर प्रभु सेवक ने मयुर स्वर में अपनी कला सुनानी शुरू की। कवि ने मृत्युलोक के एक दुःखी प्राणी के हृदय के वे भाव व्यक्त किये थे, जा नारागण को देखकर उठे थे। बह एक-एक चरण झूम-झूमकर पढ़ते थे और उसे दे-दो, तीन-तीन बार दुहराते थे; किंतु सोफिया ने एक बार भी दाद न दी, मानों वह काव्य-रस-शून्य हो गई थी। जब पूरी कविता समाप्त हो गई, तो प्रभु सेवक ने पूछा—"इसके विषय में तुम्हारा क्या विचार है?"

सोफिया ने कहा—"अच्छी तो है।"

प्रभु से एक-"मेरी सूक्तियों पर तुमने ध्यान नहीं दिया। तारागण की आज तक किसी कवि ने देवात्माओं से उपमा नहीं दी है। मुझे तो विश्वास है कि इस कविता के प्रकाशित होते ही कवि-समाज में हलचल मच जायगी।"

सोफिया—"मुझे तो याद आता है कि शेली और वई सवर्थ इस उपमा को पहले ही बाँध चुके हैं। यहाँ के कवियों ने भी कुछ ऐसा ही वर्णन किया है। कदाचित् ह्यूगा की एक कविता का शीर्षक भी यही है। संभव है, तुम्हारी कन्चना उन कत्रियों से लड़ गई हो।"