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रंगभूमि


काल में, इतना निष्काम नहीं पाता। जिस राष्ट्र ने एक बार अपनी स्वाधीनता खो दी, वह फिर उस पद को नहीं पा सकता। दासता ही उसकी तकदीर हो जाती है। किंतु हमारे डॉक्टर बाबू मानव-चरित्र को इतना स्वार्थी नहीं समझते। इनका मत है कि हिंसक पशुओं के हृदय में भी अनंत ज्योति की किरणें विद्यमान रहती हैं, केवल परदे को हटाने की जरूरत है। मैं अँगरेजों की तरफ से निराश हो गया हूँ, इन्हें विश्वास है कि भारत का उद्धार अँगरेज—जाति ही के द्वारा होगा।"

मिसेज सेवक—(रुखाई से) "तो क्या आप यह नहीं मानते कि अँगरेजों ने भारत के लिए जो कुछ किया है, वह शायद ही किसी जाति ने किसी जाति या देश के साथ- किया हो?"

कुँवर साहब—"नहीं, मैं यह नहीं मानता।"

मिसेज सेवक—(आश्चर्य से) “शिक्षा का इतना प्रचार और भी किसी काल में हुआ था?"

कुँवर साहब—“मैं उसे शिक्षा ही नहीं कहता, जो मनुष्य को स्वार्थ का पुतला बना दे।"

मिसेज सेवक—“रेल, तार, जहाज, डाक, ये सब विभूतियाँ अँगरेजों ही के साथ आई!"

कुँवर साहब—"अँगरेजों के बगैर भी आ सकती थीं, और अगर आई भी हैं, तो अधिकतर अँगरेजों ही के लाभ के लिए।"

मिसेज सेवक—"ऐसा न्याय-विधान पहले कभी न था।"

कुँवर साहब—"ठीक है, ऐसा न्याय-विधान कहाँ था, जो अन्याय को न्याय और असत्य को सत्य सिद्ध कर दे! यह न्याय नहीं, न्याय का गोरखधंधा है।"

सहसा रानी जाह्नवी कमरे में आई। सोफिया का चेहरा उन्हें देखते ही सूख गया। वह कमरे के बाहर निकल आई, रानी के सामने खड़ी न रह सकी। मिसेज सेवक को भी शंका हुई कि कहीं चलते-चलते रानी से फिर न विवाद हो जाय। वह भी बाहर चली आई। कुँवर साहब ने दोनों को फिटन पर सवार कराया। सोफिया ने सजल नेत्रों से कर जोड़कर कुँवरजी को प्रणाम किया। फिटन चली। आकाश पर काली घटा छाई हुई थी, फिटन सड़क पर तेजी से दौड़ी चली जाती थी और सोफिया बैठी रो रही थी।

उसकी दशा उस बालक की सी थी, जो रोटी खाता हुआ मिठाईवाले की आवाज सुनकर उसके पीछे दौड़े, ठोकर खाकर गिर पड़े, पैसा हाथ से निकल जाय और वह रोता हुआ घर लौट आवे।

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