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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/१७७

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रंगभूमि

राजा—“न जाओ, तो कोई हरज है? स्टेशन पर भीड़ बहुत होगी।"

इंदु—"हरज क्या होगा, मैं जाऊँ या न जाऊँ; वे लोग तो जायँगे ही, पर दिल नहीं मानता। वे लोग घर-बार छोड़कर जा रहे हैं, न जाने क्या-क्या कष्ट उठायेंगे, न जाने कब लौटेंगे, मुझसे इतना भी न हो कि उन्हें बिदा कर आऊँ? आप भी क्यों नहीं चलते?"

राजा—(विस्मित होकर) "मैं?"

इंदु—"हाँ-हाँ, आपके जाने में कोई हरन है?"

राजा—"मैं ऐसी संस्थाओं में सम्मिलित नहीं होता!"

इंदु—"कैसी संस्थाओं में?"

राजा—“ऐसी ही संस्थाओं में!"

इंदु—"क्या सेवा-समितियों से सहानुभूति रखना भी आपत्ति-जनक है? मैं तो समझती हूँ, ऐसे शुभ कार्यों में भाग लेना किसी के लिए भी लज्जा या आपत्ति की बात बात नहीं हो सकती।"

राजा—"तुम्हारी समझ में और मेरी समझ में बड़ा अंतर है। यदि मैं बोर्ड का प्रधान न होता, यदि मैं शासन का एक अंग न होता, अगर मैं एक रियासत का स्वामी न होता, तो स्वच्छंदता से प्रत्येक मार्वजनिक कार्य में भाग लेता। वर्तमान स्थिति में मेरा किसी संस्था में भाग लेना इस बात का प्रमाण समझा जायगा कि राज्याधिकारियों को उससे सहानुभूति है। मैं यह भ्रांति नहीं के लाना चाहता। सेवा-समिति युवकों का दल है, और यद्यपि इस समय उसने सेवा का आदर्श अपने सामने रखा है और वह सेवा-पथ पर ही चलने की इच्छा रखती है; पर अनुभव ने सिद्ध कर दिया है कि सेवा और उपकार बहुधा ऐसे रूप धारण कर लेते हैं, जिन्हें कोई शासन स्त्रीकार नहीं कर सकता और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसे उसका मूलोच्छेद करने के प्रयत्न करने पड़ते हैं। मैं इतना बड़ा उत्तरदायित्व अपने सिर नहीं लेना चाहता।”

इंदु—"तो आप इस पद को त्याग को नहीं देते? अनो स्वाधीनता का क्यों बलिदान करते हैं?"

राजा—"केवल इसलिए कि मुझे विश्वास है कि नगर का प्रबंध जितनी सुन्दरता से मैं कर सकता हूँ, और कोई नहीं कर सकता। नगर मेवा का ऐसा अच्छा और दुर्लभ अवसर पाकर मैं अपनी स्वच्छंदता की जरा भी परवा नहीं करता। मैं एक राज्य का अधीश हूँ और स्वभावतः मेरी सहानुभूति सरकार के साथ है। जनवाद ओर साम्यवाद को संपत्ति से वैर है। मैं उस समय तक साम्यवादियों का साथ न दूँगा, जब तक मन में यह निश्चय न कर लूँ कि अपनी संपत्ति त्याग दूँगा। मैं वचन से साम्यवाद का अनुयायी बनकर कर्म से उसका विरोधी नहीं बनना चाहता। कर्म और वचन में इतना घोर विरोध मेरे लिए असह्य है। मैं उन लोगों को धूर्त और पाखंडी समझता हूँ, जो अपनी संपत्ति को भोगते हुए माम्य की दुहाई देते फिरते हैं। मेरो समझ