इंदु—"कुछ परवा नहीं, फौरन् घोड़े फेर दो।"
कोचवान—"क्या सरकार की तबियत कुछ खराब हो गई क्या?"
इंदु-"बक-बक मत करो, गाड़ो लौटा ले चलो।"
कोचवान ने गाड़ी फेर दी। इंदु ने एक लंबी साँस ली और सोचने लगी-सब लोग मेरा इंतजार कर रहे होंगे; गाड़ी देखते ही पहचान गये थे। अम्मा कितनी खुश हुई होंगी; पर गाड़ी को लौटते देखकर उन्हें और अन्य सब आदमियों को कितना विस्मय हुआ होगा! कोचवान से कहा-"जरा पीछे फिरकर देखो, कोई आ तो नहीं रहा है?"
कोचबान—“हुजूर, कोई गाड़ी आ तो रही है।"
इंदु-"घोड़ों को तेज कर दो, चौगाम छोड़ दो।"
कोचवान—"हुजूर, गाड़ी नहीं, मोटर है, साफ मोटर है।"
इंदु—"घोड़ों को चाबुक लगाओ।"
कोचवान—"हुजूर, यह तो अपनी ही मोटर मालूम होती है, हींगनसिंह चला रहे हैं। खूब पहचान गया, अपनी ही मोटर है।"
इंदु—“पागल हो, अपनी मोटर यहाँ क्यों आने लगी?"
कोचवान—"हुजूर, अपनी मोटर न हो, तो जो चोर की सजा, वही मेरी। साफ नजर आ रही है, वही रंग है। ऐसी मोटर इस शहर में दूसरी है ही नहीं।"
इंदु—"जरा गौर से देखो।"
कोचवान—"क्या देखूँ हुजूर, वह आ पहुँची, सरकार बैठे हैं।"
इंदु—"ख्वाब तो नहीं देख रहा है।”
कोचवान—"लीजिए हुजूर, यह बराबर आ गई।"
इंदु ने घबराकर बाहर देखा, तो सचमुच अपनी ही मोटर थी। गाड़ी के बराबर आकर रुक गई और राजा साहब उतर पड़े। कोचवान ने गाड़ी रोक दी। इंदु चकितहाकर बोली-“आप कब आ गये?"
राजा—"तुम्हारे आने के पाँच मिनट बाद मैं भी चल पड़ा।"
इंदु—"रास्ते में तो कहीं नहीं दिखाई दिये।
राजा—"लाइन की तरफ से आया हूँ। इधर की सड़क खराब है। मैंने समझा, जरा चक्कर तो पड़ेगा, मगर जाद पहुँचूँगा। तुम स्टेशन के सामने से कैसे लौट आई? क्या बात है? तबियत तो अच्छी है? मैं तो घबरा गया। आओ, मोटर पर बैठ जाओ। स्टेशन पर गाड़ी आ गई है, दस मिनट में छूट जायगी। लोग उत्सुक हो रहे हैं।"
इंदु—"अब मैं न जाऊँगी। आप तो पहुँच हो गये थे।"
राजा—"तुम्हें चलना ही पड़ेगा।"
इंदु—"मुझे मंजबूर न कीजिए, मैं न जाऊँगी।"
राजा—"पहले तो तुम यहाँ आने के लिए इतनी उत्सुक थीं, अब क्यों इनकार कर रही हो?"