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रंगभूमि


करें। अपराध और दंड में कारण और कार्य का सम्बन्ध है, और यही मेरी समझ में आता है। अपराधी के सिर तेल चुपड़ते मैंने किसी को नहीं देखा। मुझे यह अस्वामाविक जान पड़ता है। इससे मेरे मन में भाँति-भाँति की शंकाएँ उठने लगती हैं।"

राजा—"देवी रूठती हैं, तो लोग उन्हें मनाते हैं। इसमें अस्वाभाविकता क्या है!"

दोनों में देर तक सवाल-जवाब होता रहा। महेंद्र बहेलिये की भाँति दाना दिखाकर चिड़िया फँसाना चाहते थे और चिड़िया सशंक होकर उड़ जाती थी। कपट से कपट ही पैदा होता है। वह इदु को आश्वासित न कर सके। तब वह उसकी व्यथा को शांत करने का भार समय पर छोड़कर एक पत्र पढ़ने लगे और इंदु दिल पर बोझ रखे हुए अंदर चली गई।

दूसरे दिन राजा साहब ने दैनिक पत्र खोला, तो उसमें सेवकों की यात्रा का वृत्तांत बड़े विस्तार से प्रकाशित हुआ था। इसी प्रसंग में लेखक ने राजा साहब की उपस्थिति पर भी टीका की थी-

"इस अवसर पर म्युनिसिपैलिटी के प्रधान राजा महेन्द्रकुमारसिंह का मौजूद होना बड़े महत्त्व की बात है। आश्चर्य है कि राजा साहब-जैसे विवेकशील पुरुष ने वहाँ जाना क्यों आवश्यक समझा। राजा साहब अपने व्यक्तित्व को अपने पद से पृथक् नहीं कर सकते और उनकी उपस्थिति सरकार को उलझन में डालने का कारण हो सकती है।

अनुभव ने यह बात सिद्ध कर दी है कि सेवा—समितियाँ चाहे कितनी शुभेच्छाओं से भी गर्भित हों, पर कालांतर में वे विद्रोह और अशांति का केंद्र बन जाती हैं। क्या राजा साहब इसका जिम्मा ले सकते हैं कि यह समिति आगे चलकर अपनी पूर्ववर्ती संस्थाओं का अनुसरण न करेगी?"

राजा साहब ने पत्र बंद करके रख दिया और विचार में मग्न हो गये। उनके मुंह ने बेअख्तियार निकल गया—“वही हुआ जिसका मुझे डर था। आज क्लब जाते-ही-जाते मुझ पर चारों ओर से संदेहात्मक दृष्टि पड़ने लगेगी। कल ही कमिश्नर साहब से मिलने जाना है, उन्होंने कुछ पूछा तो क्या कहूँगा। इस दुष्ट संपादक ने मुझे बुरा चरका दिया। पुलिसवालों की भाँति इस समुदाय में भी मुरीवत नहीं होती, जरा भी रिआयत नहीं करते। मैं इसका मुँह बंद रखने के लिए,इसे प्रसन्न रखने के लिए कितने यत्न किया करता हूँ; आवश्यक और अनावश्यक विज्ञापन छपवाकर इसकी मुट्ठियाँ गरम करता रहता हूँ; जब कोई दावत या उत्सव होता है, तो सबसे पहले इसे निमंत्रण भेजता हूँ; यहाँ तक कि गत वर्ष म्युनिसिपैलिटी से इसे पुरस्कार भी दिला दिया था। इन सब खातिरदारियों का यह उपहार है! कुत्ते की दुम को सौ वर्षों तक गाड़ रखो, तो भी टेढ़ी-की-टेढ़ी। अब अपनी मान-रक्षा क्योंकर करूँ। इसके पास जाना तो उचित नहीं, क्या कोई बहाना सोचूँ?"

राजा साहब बड़ी देर तक इसी पसोपेश में पड़े रहे। कोई ऐसी बात सोच निकालना चाहते थे, जिससे हुक्काम की निगाहों में आबरू बनी रहे, साथ ही जनता के सामने भी