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रंगभूमि

ये बातें हो ही रही थीं कि सैयद ताहिरअली ने सोफिया को मोटर पर बैठे जाते देखा, तो तुरंत आकर सामने खड़े हो गये और सलाम किया। सोफी ने मोटर रोक दी और पूछा-“कहिए मुंशीजी, इमारत बनने लगी?"

ताहिर—"जी हाँ, कल दाग-बेल पड़ेगी; पर मुझे यह बेल मुड़े चढ़ती नहीं नजर आती।"

सोफिया—"क्यों? क्या कोई वारदात हो गई?"

ताहिर-हुजूर, जब से इस अंधे ने शहर में आह-फरियाद शुरू की है, तब से

अजीब मुसीबत का सामना हो गया है। मुहल्लेवाले तो अब नहीं बोलते, लेकिन शहर के शोहदे-लुच्चे रोजाना आकर मुझे धमकियाँ देते हैं। कोई घर में आग लगाने को अमादा होता है, कोई लूटने को दौड़ता है, कोई मुझे कत्ल करने की धमकी देता है। आज सुबह कई सौ आदमी लाठियाँ लिये आ गये और गोदाम को घेर लिया। कुछ लोग सीमेंट और चूने के ढेरों को बखेरने लगे, कई आदमो पत्थर की सिलों को तोड़ने लगे। मैं तनहा क्या कर सकता था? यहाँ के मजदूर खौफ के मारे जान लेकर भागे। कयामत का सामना था। मालूम होता था, अब आन-को-आन में महशर बरया हो जायगा। दरवाजा बंद किये बैठा अल्लाह-अल्लाह कर रहा था कि किसी तरह हंगामा फरो हो। बारे, दुआ कबूल हुई। ऐन उसी वक्त अंधा न जाने किधर से आ निकला और बिजली की तरह कड़ककर बोला-"तुम लोग यह उधम मचाकर मुझे क्यों कलंक लगा रहे हो? आग लगाने से मेरे दिल को आग न बुझेगी, लहू बहाने से मेरा चित्त शांत न होगा। आप लोगों की दुआ से यह आग और जलन मिटेगी। परमात्मा से कहिए, मेरा दुःख मिटायें। भगवान् से विनती कीजिए, मेरा संकट हरें। जिन्होंने मुझ पर जुलुम किया है, उनके दिल में दया-धरम जागे, बस मैं आप लोगों से और कुछ नहीं चाहता।" इतना सुनते ही कुछ लोग तो हट गये; मगर कितने ही आदमी बिगड़कर बोले-"तुम देवता हो, तो बने रहो; हम देवता नहीं हैं, हम तो जैसे के साथ तैसा करेंगे। उन्हें भी तो गरीबों पर जुल्म करने का मजा मिल जाय।" यह कहकर वे लोग पत्थरों को उठा-उठाकर पटकने लगे। तब इस अंधे ने वह काम किया, जो औलिया हो कर सकते हैं। हुजूर, मुझे तो कामिल यकीन हो गया कि कोई फरिश्ता है। उसकी बातें अभी तक कानों में गूँज रही हैं। उसकी तसवीर अभी तक आँखों के सामने खिंची हुई है। उसने जमोन से एक बड़ा-सा पत्थर का टुकड़ा उठा लिया और उसे अपने माथे के सामने रखकर बोला-"अगर तुम लोग अब भी मेरी बिनती न सुनोगे, तो इसी दम इस पत्थर से सिर टकराकर जान दे दूँगा। मुझे मर जाना मंजूर है, पर यह अंधेर नहीं देख सकता।" उसके मुँह से इन बातों का निकलना था कि चारों तरफ सन्नाटा छा गया। जो जहाँ था, वह वहीं बुत बन गया। जरा देर में लोग आहिस्ता-आहिस्ता रुखसत होने लगे और कोई आध घंटे में सारा मजमा गायब हो गया। सुरदास उठा और लाठी टेकता हुआ जिधर से आया था, उसी तरफ चला गया। हुजूर, मुझे तो पूरा यकीन है कि वह इंसान नहीं, कोई फरिश्ता है।"