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रंगभूमि

बजरंगी—"कह तो दिया, वह जमीन न बिकेगी, मालिक-मुख्तार कोई हो।"

ताहिर—"आइए पण्डाजी, आइए, इन्हें बकने दीजिए।”

नायकराम—"आपको जो कुछ कहना हो, कहिए; ये सब लोग अपने ही हैं, किसी से परदा नहीं है। सुनेंगे, तो सब सुनेंगे, और जो बात तय होगी, सबकी सलाह से होगी। कहिए, क्या कहते हैं?"

ताहिर—"उसी जमीन के बारे में बातचीत करनी थी।"

नायकराम—"तो उस जमीन का मालिक तो आपके सामने बैठा हुआ है; जो कुछ कहना है, उसी से क्यों नहीं कहते? मुझे बीच में दलाली नहीं खानी है। जब सूरदास ने साहब के सामने इनकार कर दिया, तो फिर कौन-सी बात बाकी रह गई?"

बजरंगी—"इन्होंने सोचा होगा कि पण्डाजी को बीच में डालकर काम निकाल लेंगे। साहब से कह देना, यहाँ साहबी न चलेगी।"

ताहिर-"तुम अहीर हो न, तभी इतने गर्म हो रहे हो। अभी साहब को जानते नहीं हो, तभी बढ़-बढ़कर बातें कर रहे हो। जिस वक्त साहब जमीन लेने पर आ जायँगे, ले ही लेंगे, तुम्हारे रोके न रुकेंगे। जानते हो, शहर के हाकिमों से उनका कितना रब्तजन्त है? उनकी लड़की की मँगनी हाकिम-जिला से होनेवाली है। उनकी बात को कौन टाल सकता है? सीधे से, रजामंदी के साथ दे दोगे, तो अच्छे दाम पा जाओगे; शरारत करोगे, तो जमीन भी निकल जायगी, कौड़ी भी हाथ न लगेगी। रेलों के मालिक क्या जमीन अपने साथ लाये थे? हमारी ही जमीन तो ली है? क्या उसी कायदे से यह जमीन नहीं निकल सकती?"

बजरंगी—"तुम्हें भी कुछ तय-कराई मिलनेवाली होगी, तभी इतनी खैरखाही कर रहे हो।"

जगधर—"उनसे जो कुछ मिलनेवाला हो, वह हमीं से ले लीजिए, और उनसे कह दीजिए, जमीन न मिलेगी। आप लोग झाँसेबाज हैं, ऐसा झाँसा दीजिए कि साहब की अकिल गुम हो जाय।"

ताहिर-खैरख्वाही रुपये के लालच से नहीं है। अपने मालिक की आँख बचाकर एक कौड़ी लेना भी हराम समझता हूँ। खैरख्वाही इसलिए करता हूँ कि उनका नमक खाता हूँ।"

जगधर—"अच्छा साहब, भूल हुई, माफ कीजिए। मैंने तो संसार के चलन की बात कही थी।"

ताहिर—"तो सूरदास; मैं साहब से जाकर क्या कह दूँ?"

सूरदास—"बस, यही कह दीजिए कि जमीन न बिकेगी।”

ताहिर—"मैं फिर कहता हूँ, धोखा खाओगे। साहब जमीन लेकर ही छोड़ेंगे।"

सूरदास—"मेरे जीते-जी तो जमीन न मिलेगी। हाँ, मर जाऊँ, तो भले ही मिल जाए।"