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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/२३९

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रंगभूमि


एक दिन वह था कि जिधर से निकल जाता था, लोग खड़े हो-होकर सलाम करते थे, सभाओं में मेरा व्याख्यान सुनने के लिए लोग उत्सुक रहते थे और मुझे अंत में बोलने का अवसर मिलता था; और एक दिन यह है कि मुझ पर तालियाँ पड़ती हैं और मेरा स्वाँग निकालने की तैयारियाँ की जाती हैं। अंधे में फिर भी विवेक है, नहीं तो बनारस के शोहदे दिन-दहाड़े मेरा घर लूट लेते।

सहसा अरदली ने आकर मि० क्लार्क का आज्ञा-पत्र उनके सामने रख दिया। राजा साहब ने चौंककर लिफाफा खोला, तो अवाक रह गये। विपत्ति-पर-विपत्ति! रही-सही इज्जत भी खाक में मिल गई।

चपरासो-“हुजूर, कुछ जवाब देंगे?"

राजा साहब-"जवाब की जरूरत नहीं।"

चपरासी-"कुछ इनाम नहीं मिला। हुजूर ही......"

राजा साहब ने उसे और कुछ न कहने दिया। जेब से एक रुपया निकालकर फेक दिया। अरदली चला गया।

राजा साहब सोचने लगे-दुष्ट को इनाम माँगते शर्म भी नहीं आती, मानों मेरे नाम कोई धन्यवाद-पत्र लाये हैं। कुत्ते हैं, और क्या, कुछ न दो, तो काटने दौड़ें, झूठी-सच्ची शिकायतें करें। समझ में नहीं आता, क्लार्क ने क्यों अपना हुक्म मंसूख कर दिया। जॉन सेवक से किसी बात पर अनबन हो गई क्या? शायद सोफिया ने क्लार्क को ठुकरा दिया। चलो, यह भी अच्छा ही हुआ। लोग यह तो कहेंगे ही कि अंधे ने राजा साहब को नीचा दिखा दिया; पर इस दुहाई से तो गला छूटेगा।

उनकी दशा इस समय उस आदमी की-सी थी, जो अपने मुँह-जोर घोड़े के भाग जाने पर खुश हो। अब हड्डियों के टूटने का भय तो नहीं रहा। मैं घाटे में नहीं हूँ। अब रूठी रानी भी प्रसन्न हो जायँगी। इंदु से कहूँगा, मैंने ही मिस्टर क्लार्के से अपना फैसला मंसूख करने के लिए कहा है।

वह कई दिन से इंदु से मिलने न गये थे। अंदर जाते हुए डरते थे कि इंदु के तानों का क्या जवाब दूँगा। इंदु भी इस भय से उनके पास न आती थी कि कहीं फिर मेरे मुँह से कोई अप्रिय शब्द न निकल जाय। प्रत्येक दांपत्य-कलह के पश्चात् जब वह उसके कारणों पर शांत हृदय से विचार करती थी, तो उसे ज्ञात होता था कि मैं ही अपराधिनी हूँ, और अपने दुराग्रह पर उसे हार्दिक दुःख होता था। उसकी माता ने वाल्यावस्था ही से पतिव्रत का बड़ा ऊँचा आदर्श उसके सम्मुख रखा था। उस आदर्श से गिरने पर वह मन-ही-मन कुढ़ती और अपने को धिक्कारती थी-'मेरा धर्म उनकी आज्ञा का पालन करना है। मुझे तन-मन से उनकी सेवा करनी चाहिए। मेरा सबसे पहला कर्तव्य उनके प्रति है, देश और जाति का स्थान गौण है; पर मेरा दुर्भाग्य बार-बार मुझे कर्तव्य-मार्ग से विचलित कर देता है। मैं इस अंधे के पीछे बरबस उनसे उलझ पड़ी। वह विद्वान् हैं, विचारशील हैं। यह मेरी धृष्टता है कि मैं उनकी अगुआई करने का दावा