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रंगभूमि


करती हूँ। जब मैं छोटी-छोटी बातों में मानापमान का विचार करती हूँ, तो उनसे कैसे आशा करूँ कि वह प्रत्येक विषय में निष्पक्ष हो जायँ।"

कई दिन तक मन में यह खिचड़ी पकाते रहने के कारण उसे सूरदास से चिढ़ हो गई। सोचा-इसी अभागे के कारण मैं यह मनस्ताप भोग रही हूँ। इसी ने यह मनो-मालिन्य पैदा कराया है। आखिर उस जमीन से मुहल्लेवालों ही का निस्तार होता है न, तो जब उन्हें कोई आपत्ति नहीं है, तो अंधे की क्यों नानी मरती है! किसी की जमीन पर कोई जबरदस्ती क्यों अधिकार करे, यह ढकोसला है, और कुछ नहीं। निर्बल जन आदि काल से ही सताये जाते हैं और सताये जाते रहेंगे। जब यह व्यापक नियम है, तो क्या एक कम, क्या एक ज्यादा।

इन्हीं दिनों सूरदास ने राजा साहब को शहर में बदनाम करना शुरू किया, तो उसके ममत्व का पलड़ा बड़ी तेजी से दूसरी ओर झुका। उसे सूरदास के नाम से चिढ़ हो गई यह टके का आदमी और इसका इतना साहस कि हम लोगों के सिर चढ़े! अगर साम्यवाद का यही अर्थ है तो ईश्वर हमें इससे बचाये। यह दिनों का फेर है, नहीं तो इसकी क्या मजाल थी कि हमारे उपर छीटे उड़ाता।

इंदु दीन जनों पर दया कर सकती थी—दया में प्रभुत्व का भाव अंतर्हित है— न्याय न कर सकती थी, न्याय की भित्ति साम्य पर है। सोचती-यह उस बदमाश को पुलिस के हवाले क्यों नहीं कर देते? मुझसे तो यह अपमान न सहा जाता। परिणाम कुछ होता, पर इस समय तो इस बुरी तरह पेश आती कि देखनेवालों के रोयें बड़े हो जाते।

वह इन्हीं कुत्सित विचारों में पड़ी हुई थी कि सोफिया ने जाकर उसके सामने राजा साहब पर सूरदास के साथ अन्याय करने का अपराध लगाया, खुली हुई धमकी दे गई। इंदु को इतना क्रोध आया कि सूरदास को पाती, तो उसका मुँह नोच लेती। सोफिया के जाने के बाद वह क्रोध में भरी हुई राजा साहब से मिलने आई; पर बाहर मालूम हुआ कि वह कुछ दिन के लिए इलाके पर गये हुए हैं। ये दिन उसने बड़ी बेचैनी में काटे। अफसोस हुआ कि गये और मुझसे पूछा भी नहीं!

राजा साहब जब इलाके से लौटे तो उन्हें मि० क्लार्क का परवाना मिला। वह उस पर विचार कर रहे थे कि इंदु उनके पास आई और बोली—“इलाके पर गये और मुझे खबर तक न हुई, मानों मैं घर में हूँ ही नहीं।"

राजा ने लजित होकर कहा—"ऐसा ही एक जरूरी काम था। एक दिन की भी देर हो जाती, तो इलाके में फौजदारी हो जाती। मुझे अब अनुभव हो रहा है कि ताल्लुकेदारों के अपने इलाके पर न रहने से प्रजा को कितना कष्ट होता है।"

"इलाके में रहते, तो कम-से-कम इतनी बदनामी तो न होती।"

“अच्छा, तुम्हें भी मालूम हो गया। तुम्हारा कहना न मानने में मुझसे बड़ी भूल हुई। इस अंधे ने ऐसी विपत्ति में डाल दिया कि कुछ करते-धरते नहीं बनता। सारे शहर