सुभागी—"तुम्हारी मिहनत की कमाई है, तुम्हारे पास आ गई। अब जतन से रखना।"
सूरदास—"मैं न रखूँगा। इसे ले जा।"
सुभागी—"क्यों? अपनी चीज लेने में कोई हरज है?"
सूरदास—"यह मेरी चीज नहीं। भैरो की चीज है। इसी के लिए भैरो ने अपनी आत्मा बेची है, महँगा सौदा लिया है। मैं इसे कैसे ले लूँ?"
सुभागी—"मैं ये सब बातें नहीं जानती। तुम्हारी चीज है, तुम्हें लेनी पड़ेगी। इसके लिए मैंने अपने घरवालों से छल किया है। इतने दिनों से इसी के लिए माया रच रही हूँ। तुम न लोगे, तो इसे मैं क्या करूँगी?"
सूरदास—“भैरो को मालूम हो गया, तो तुम्हें जीता न छोड़ेगा।"
सुभागी—"उन्हें न मालूम होने पायेगा। मैंने इसका उपाय सोच लिया है।"
यह कहकर सुभागी चली गई। सूरदास को और तर्क-वितर्क करने का मौका न मिला। बड़े असमंजस में पड़ा-“ये रुपये लूँ या क्या करूँ? यह थैली मेरी है या नहीं? अगर भैरो ने इसे खर्च कर दिया होता, तो? क्या चोर के घर चोरी करना पाप नहीं? क्या मैं अपने रुपये के बदले उसके रुपये ले सकता हूँ? सुभागी मुझ पर कितनी दया करती है। वह इसीलिए मुझे ताने दिया करती थी कि यह भेद न खुलने पाये।"
वह इसी उधेड़बुन में पड़ा हुआ था कि एकाएक "चोर-चोर!” का शोर सुनाई दिया। पहली ही नींद थी। लोग गाफिल सो रहे थे। फिर आवाज आई।-"चोर-चोर!"
भैरो की आवाज थी। सूरदास समझ गया, सुभागी ने यह प्रपंच रचा है। अपने द्वार पर पड़ा रहा। इतने में बजरंगी की आवाज सुनाई दी-"किधर गया, किधर?" यह कहकर वह लाठी लिये अँधेरे में एक तरफ दौड़ा। नायकराम भी घर से निकले और किधर-किधर करते हुए दौड़े। रास्ते में बजरंगी से मुठभेड़ हो गई। दोनों ने एक दूसरे को चोर समझा। दोनों ने वार किया और दोनों चोट खाकर गिर पड़े। जरा देर में बहुत-से आदमी जमा हो गये। ठाकुरदीन ने पूछा-"क्या-क्या ले गया? अच्छी तरह देख लेना, कहीं छत में न चिमटा हुआ हो। चोर दीवार से ऐसा चिमट जाते हैं कि दिखाई नहीं देते।"
सुभागी—"हाय, मैं तो लुट गई। अभी तो बैठी-बैठी अम्माँ का पाँव दबा रही थी। इतने में न जाने मुआ कहाँ से आ पहुँचा।"
भैरो—(चिराग से देखकर) "सारी जमा-जथा लुट गई। हाय राम!"
सुभागी—"हाय, मैंने उसकी परछाई देखी, तो समझी यही होंगे। जब उसने संदूक पर हाथ बढ़ाया, तो समझी यही होंगे।"
ठाकुरदीन—"खपरैल पर चढ़कर आया होगा। मेरे यहाँ जो चोरी हुई थी, उसमें भी चोर सब खपरैल पर चढ़कर आये थे।"