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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/२५४

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रंगभूमि


इतने में बजरंगी आया। सिर से रुधिर बह रहा था, बोला-"मैंने उसे भागते देखा। लाठी चलाई। उसने भी वार किया। मैं तो चक्कर खाकर गिर पड़ा; पर उस पर भी ऐसा हाथ पड़ा है कि सिर खुल गया होगा।"

सहसा नायकराम हाय-हाय करते आये और जमीन पर गिर पड़े। सारी देह खून से तर थी।

ठाकुरदीन-“पण्डाजी, क्या तुमसे भी उसका सामना हो गया क्या?”

नायकराम की निगाह बजरंगी की ओर गई। बजरंगो ने नायकराम की ओर देखा। नायकराम ने दिल में कहा-पानी का दूध बनाकर बेचते हो; अब यह ढंग निकाला है। बजरंगी ने दिल में कहा-जात्रियों को लूटते हो, अब मुहल्लेवालों ही पर हाथ साफ करने लगे।

नायकराम-"हाँ भई, यहीं गली में तो मिला। बड़ा भारी जवान था।"

ठाकुरदीन-"तभी तो अकेले दो आदमियों को घायल कर गया। मेरे घर में जो चोर पैठे थे, वे सब देव मालूम होते थे। ऐसे डील-डौल के तो आदमी हो नहीं देखे। मालूम होता है, तुम्हारे ऊपर उसका भरपूर हाथ पड़ा।”

नायकराम-"हाथ मेरा भी भरपूर पड़ा है। मैंने उसे गिरते देखा। सिर जरूर फट गया होगा। जब तक पक-पक, निकल गया।"

बजरंगी-"हाथ तो मेरा भी ऐसा पड़ा है कि बच्चा को छठी का दूध याद आ गया होगा। चारों खाने चित गिरा था।"

ठाकुरदीन-"किसी जाने हुए आदमी का काम है। घर के भेदिये बिना कभी चोरी नहीं होतो। मेरे यहाँ सबों ने मेरी छोटी लड़की को मिठाई देकर नहीं घर का सारा भेद पूछ लिया था?"

बजरंगी-"थाने में जरूर रपट करना।”

भैरो-"रसट ही करके थोड़े ही रह जाऊँगा। बचा से चक्की न पिसवाऊँ, तो कहना। चाहे बिक जाऊँ, पर उन्हें भी पीस डालूँगा। मुझे सब मालूम है।"

ठाकुरदीन-"माल-का-माल ले गया, दो आदमियों को चुटैल कर गया। इसी से मैं चोरों के नगीच नहीं गया था। दूर ही से लेना-लेना करता रहा। जान सलामत रहे, तो माल फिर आ जाता है।"

भैरो को बजरंगो पर शुभा न था, न नायकराम पर; उसे जगधर पर शुभा था। शुभा ही नहीं, पूरा विश्वास था। जगधर के सिवा किसी को न मालूम था कि रुपये कहाँ रखे हुए हैं। जगधर लठैत भी अच्छा था। वह पड़ोसी होकर भी घटनास्थल पर सबसे पीछे पहुँचा था। ये सब कारण उसके संदेह को पुष्ट करते थे।

यहाँ से लोग चले, तो रास्ते में बातें होने लगी। ठाकुरदीन ने कहा-"कुछ अपनी कमाई के रुपये तो थे नहीं, वही सूरदास के रुपये थे।"

नायकराम--"पराया माल अपने घर आकर अपना हो जाता है।"