इसके कई दिन बाद एक दिन रात के समय सूरदास बैठा भोजन बना रहा था कि जगधर ने आकर कहा—"क्यों सूरे, तुम्हारी अमानत तो तुम्हें मिल गई न?"
सूरदास ने अज्ञात भाव से कहा—"कैसी अमानत?”
जगधर—"वही रुपये, जो तुम्हारी झोपड़ी से उठ गये थे।”
सूरदास-मेरे पास रुपये कहाँ थे?"
जगधर—"अब मुझसे न उड़ो, रत्ती-रत्ती बात जानता हूँ, और खुस हूँ कि किसो तरह तुम्हारी चीज उस पापी के चंगुल से निकल आई। सुभागी अपनी बात की पक्की औरत है।"
सूरदास—"जगधर, मुझे इस झमेले में न घसीटो, गरीब आदमी हूँ। भैरो के कान में जरा भी भनक पड़ गई, तो मेरी जान तो पीछे लेगा, पहले सुभागी का गला घोट देगा।"
जगधर—"मैं उससे कहने थोड़े ही जाता हूँ; पर बात हुई मेरे मन की। बचा ने इतने दिनों तक हलवाई की दुकान पर खूब दादे का फातिहा पढ़ा, धरती पर पाँव ही न रखता था, अब होश ठिकाने आ जायेंगे।"
"सूरदास—"तुम नाहक मेरी जान के पीछे पड़े हो।"
जगधर—“एक बार खिलखिलाकर हँस दो, तो मैं चला जाऊँ। अपनी गई हुई चीज पाकर लोग फूले नहीं समाते। मैं तुम्हारी जगह होता, तो नाचता-कूदता, गाता-बजाता, थोड़ी देर के लिए पागल हो जाता। इतना हँसता, इतना हँसता कि पेट में बावगोला पड़ जाता; और तुम सोंठ बने बैठे हो, ले, हँसो तो।"
सूरदास—"इस बखत हँसी नहीं आती।”
जगधर--"हँसी क्यों न आयेगी, मैं तो हँसा दूँगा।"
यह कहकर उसने सूरदास को गुदगुदाना शुरू किया। सूरदास विनोदशील आदमी था। ठट्टे मारने लगा। ईर्ष्यामय परिहास का विचित्र दृश्य था। दोनों रंगशाला के नटों की भाँति हँस रहे थे और यह खबर न थी कि इस हँसी का परिणाम क्या होगा। शामत को मारी सुभागो इसी वक्त बनिये को दूकान से जिंस लिये आ रही थी। सूरदास के घर से अट्टहास की आकाशभेदो ध्वनि सुनी, तो चकराई। अंधे कुए में पानी कैसा? आकर द्वार पर खड़ा हो गई और सूरदास से बोली- आज क्या मिल गया है सूरदास, जो फूले नहीं समाते?"
सूरदास ने हँसी रोककर कहा—"मेरी थैली मिल गई। चोर के घर में छिछोर पैठा।"
सुभागी—"तो सब माल अकेले हजम कर जाओगे?"
सूरदास—"नहीं, तुझे भी एक कंठो ला दूँगा, ठाकुरजो का भजन करना।"
सुभागो—"अपनी कंठो घर रखो, मुझे एक सोने का कंठा बनवा देना।"
सूरदास-"तब तो तू धरती पर पाँव ही न रखेगो!"