सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/२५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२६०
रंगभूमि

सूरदास-"भैरो को जितना नादान समझते हो, उतना वह नहीं है। तुमसे कुछ न बोलेगा; हाँ, सुभागी को जी-भर मारेगा।"

जगधर-"नशे में उसे अपनी सुध-बुध नहीं रहती।"

सूरदास-"मैं कहता हूँ, तुमसे कुछ न बोलेगा। तुमसे अपने दिल की कोई बात नहीं छिपाई है, तुमसे लड़ाई करने की उसे हिम्मत न पड़ेगी।"

जगधर का भय शांत तो न हुआ; पर सूरदास की ओर से निराश होकर चला गया। सूरदास सारी रात जागता रहा। इतने बड़े लांछन के बाद उसे अब यहाँ रहना लजाजनक जान पड़ता था। अब मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाने के सिवा उसे और उपाय न सूझता था-"मैंने तो कभी किसी की बुराई नहीं की, भगवान मुझे क्यों यह डंड दे रहे हैं? यह किन पापों का प्रायश्चित्त करना पड़ रहा है? तीरथ-यात्रा से चाहे यह पाप उतर जाय। कल कहीं चल देना चाहिए। पहले भी भैरौ ने मुझ पर यही पाप लगाया था। लेकिन तब सारे मुहल्ले के लोग मुझे मानते थे, उसकी यह बात हसी में उड़ गई। उलटे लोगों ने उसी को डाँटा। अवकी तो सारा मुहल्ला मेरा दुसमन है, लोग सहज ही में बिसवास कर लेंगे, मुँह में कालिख लग जायगी। नहीं, अब यहाँ से भाग जाने ही में कुसल है। देवतों की सरन लूँ, वह अब मेरी रच्छा कर सकते हैं। पर बेचारी सुभागी का क्या हाल होगा? भैरो अबकी उसे जरूर छोड़ देगा। इधर मैं भी चला जाऊँगा, तो बेचारी कैसे रहेगी? उसके नैहर में भी तो कोई नहीं है, जवान औरत है, मिहनत-मजूरी कर नहीं सकती। न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। चल-कर एक बार भैरो से अकेले में सारी बातें साफ-साफ कह दूँ। भैरो से मेरी कभी सफाई से बातचीत नहीं हुई। उसके मन में गाँठ पड़ी हुई है। मन में मैल रहने हो से उसे मेरी ओर से ऐसा भरम होता है। जब तक उसका मन साफ न हो जाय, मेरा यहाँ से जाना उचित नहीं। लोग कहेंगे, काम किया था, तभी तो डरकर भागा, न करता, तो डरता क्यों? ये रुपये भी उसे फेर दूँ। मगर जो उसने पूछा कि ये रुपये कहाँ मिले, तो? सुभागी का नाम न बताऊँगा, कह दूँगा, मुझे झोपड़ी में रखे हुए मिले। इतना ना छिपाये बिना सुभागी की जान न बचेगी। लेकिन परदा रखने से सफाई कैसे होगी? छिपाने का काम नहीं है। सब कुछ आदि से अंत तक सच-सच कह दूँगा। तभी उसका मन साफ होगा।"

इस विचार से उसे बड़ी शांति मिली, जैसे किसी कवि को उलझी हुई समस्या की पूर्ति से होती है।

वह तड़के ही उठा और जाकर भैरो के दरवाजे पर आवाज दी। भैरो सोया हुआ था। सुभागी बैठी रो रही थी। भैरो ने उसके घर पहुँचते हो उसकी यथाविधि ताड़ना की थी। सुभागी ने सूरदास की आवाज पहचानी । चौंकी कि यह इतने तड़के कैसे आ गया! कहीं दोनों में लड़ाई न हो जाय। सूरदास कितना बलिष्ठ है, यह बात उससे छिपी न थी। डरी कि "सूरदास रात की बातों का बदला लेने न आया हो। यों तो बड़ा,