किया और वह उन्हें लिये विनय के कमरे में आई। देखा, तो नींद में हैं। रात की मीठी नींद से मुख पुष्प के समान विकसित हो गया है। ओठों पर हल्की-सी मुस्किराहट है, मानों फूल पर किरणें चमक रही हो, सोफी को विनय आज तक कभी इतना सुंदर न मालूम हुआ था।
सोफी ने डॉक्टर से पूछा-"रात को इसकी कैसी दशा थी?"
डॉक्टर-“हुजूर, कई बार मूर्छा आई; पर मैं एक क्षण के लिए भी यहाँ से न टला। जब इन्हें नींद आ गई, तो मैं भोजन करने चला गया। अब तो इनकी दशा बहुत अच्छी मालूम होती है।"
सोफी-"हाँ, मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है। आज वह पीलापन नहीं है। मैं अब इससे यह पूछना चाहती हूँ कि इसे किसी दूसरी जेल में क्यों न भिजवा दूँ। यहाँ का जल-वायु इसके अनुकूल नहीं है। पर आप लोगों के सामने यह अपने मन की बातें न कहेगा। आप लोग जरा बाहर चले जाएँ, तो मैं इसे जगाकर पूछ लूँ और इसका ताप भी देख लूँ। (मुस्किराकर) डॉक्टर साहब, मैं भी इस विद्या से परिचित हूँ। नीम हकीम हूँ, पर खतर-जान नहीं।"
जब कमरे में एकांत हो गया, तो सोफ़ो ने विनय का सिर उठाकर अपनी जाँघ पर रख लिया और धीरे-धीरे उसका माथा सुहलाने लगी। विनय की आँखें खुल गई। इस तरह झपटकर उठा, जैसे नींद में किसी नदी में फिसल पड़ा हो। स्वप्न का इतना तत्काल फल शायद ही किसी को मिला हो।
सोफी ने मुस्किराकर कहा-"तुम अभी तक सो रहे हो; मेरी आँखों की तरफ देखो, रात-भर नहीं झपकीं।"
विनय-"संसार का सबसे उज्ज्वल रत्न पाकर भी मीठो नींद न लूँ, तो मुझसे भाग्य-हीन और कौन होगा?"
सोफो—“मैं तो उससे भी उज्ज्वल रत्न पाकर और भी चिंताओं में फँस गई। अब यह भय है कि कहीं वह हाथ से न निकल जाय। नींद का सुख अभाव में है, जब कोई चिंता नहीं होती। अच्छा, अब तैयार हो जाओ।"
विनय-"किस बात के लिए?"
सोफी-"भूल गये? इस अंधकार से प्रकाश में आने के लिए, इस काल-कोठरी से बिदा होने के लिए। मैं मोटर लाई हूँ, तुम्हारी मुक्ति का आज्ञा-पत्र मेरी जेब में है। कोई अपमान-सूचक शर्त नहीं है। केवल उदयपुर राज्य में बिना आज्ञा के न आने की प्रतिज्ञा ली गई है। आओ, चलें। मैं तुम्हें रेल के स्टेशन तक पहुँचाकर लौट आऊँगी। तुम दिल्ली पहुँचकर मेरा इंतजार करना। एक सप्ताह के अंदर मैं तुमसे दिल्ली में आ मिलूंगी, और फिर विधाता भी हमें अलग न कर सकेगा।" विनयसिंह की दशा उस बालक की-सी थी, जो मिठाइयों के खोंचे को देखता है, "पर इस भय से कि अम्माँ मारेंगी, मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकता। मिठाइयों