सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३०५
रंगभूमि


के स्वाद याद करके उसकी राल टपकने लगती है। रसगुल्ले कितने रसीले हैं, मालूम होता है, दाँत किसी रसकुंड में फिसल पड़े। अमिर्तियाँ कितनी कुरकुरी हैं, उनमें भी रस भरा होगा। गुलाबजामुन कितनी सोंधी होती है कि खाता ही चला जाय। मिठाइयों से पेट नहीं भर सकता। अम्माँ पैसे न देंगी। होंगे ही नहीं, किससे माँगेंगी, ज्यादा हठ करूँगा, तो रोने लगेंगी। सजल-नेत्र होकर बोला—“सोफी, मैं भाग्य-हीन आदमी हूँ, मुझे इसी दशा में रहने दो। मेरे साथ अपने जीवन का सर्वनाश न करो। मुझे विधाता ने दुःख भोगने ही के लिए बनाया है। मैं इस योग्य नहीं कि तुम..........।"

सोफी ने बात काटकर कहा—"विनय, मैं विपत्ति ही की भूखी हूँ। अगर तुम सुख-संपन्न होते, अगर तुम्हारा जीवन विलासमय होता, अगर तुम वासनाओं के दास होते, तो कदाचित् मैं तुम्हारी तरफ से मुँह फेर लेती। तुम्हारे सत्साहस और त्याग ही ने मुझे तुम्हारी तरफ खींचा है।"

विनय—"अम्माँजी को तुम जानतो हो, वह मुझे कभी क्षमा न करेंगी।"

सोफी—"तुम्हारे प्रेम का आश्रय पाकर मैं उनके क्रोध को शांत कर लूँगी। जब वह देखेंगी कि मैं तुम्हारे पैरों की जंजीर नहीं, तुम्हारे पीछे उड़नेवाली रज हूँ, तो उनका हृदय पिघल जायगा।"

विनय ने सोफी को स्नेह-पूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—"तुम उनके स्वभाव से परिचित नहीं हो। वह हिन्दू-धर्म पर जान देती हैं।"

सोफी—"मैं भी हिंदू-धर्म पर जान देती हूँ। जो आत्मिक शांति मुझे और कहीं न मिली, वह गोपियों की प्रेम-कथा में मिल गई। वह प्रेम का अवतार, जिसने गोपियों को प्रेम-रस पान कराया, जिसने कुब्जा का डोंगा पार लगाया, जिसने प्रेम के रहस्य दिखाने के लिए ही संसार को अपने चरणों से पवित्र किया, उसी की चेरी बनकर जाऊँगी, तो वह कौन सच्चा हिंदू है, जो मेरी उपेक्षा करेगा?"

विनय ने मुस्किराकर कहा—"उस छलिया ने तुम पर भी जादू डाल दिया? मेरे विचार में तो कृष्ण की प्रेम-कथा सर्वथा भक्त-कल्पना है।"

सोफी—"हो सकती है। प्रभु मसीह को भी तो कल्पित कहा जाता है। शेक्सपियर भी तो कल्पना-मात्र है। कौन कह सकता है कि कालिदास की सृष्टि पंचभूतों से हुई है? लेकिन इन पुरुषों के कल्पित होते हुए भी हम उनकी पवित्र कीर्ति के भक्त हैं, और वास्तविक पुरुषों की कीर्ति से अधिक। शायद इसीलिए कि उनकी रचना स्थूल परमाणु से नहीं, सूक्ष्म कल्पना से हुई है। ये व्यक्तियों के नाम हों या न हों, पर आदर्शों के नाम अवश्य हैं। इनमें से प्रत्येक पुरुष मानवीय जीवन का एक-एक आदर्श है।"

विनय—"सोफी, मैं तुमसे तर्क में पार न पा सकूँगा। पर मेरा मन कह रहा है कि मैं तुम्हारी सरल-हृदयता से अनुचित लाभ उठा रहा हूँ। मैं तुमसे हृदय की बात कहता हूँ सोफी, तुम मेरा यथार्थ रूप नहीं देख रही हो। कहीं उस पर निगाह पड़ जाय, तो तुम मेरी तरफ ताकना भी पसंद न करोगी। तुम मेरे पैरों की जंजीर चाहे न