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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३११

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रंगभूमि


दारोगाजी ने अब समझा। बुद्धि बहुत तीक्ष्ण न थी। अकड़कर कुर्सी पर बैठ गये और बोले- "हाँ, चित्तौर के इलाके में कई गाँव हैं। पुरानी जागीर है। मेरे पिता महाराना के दरबारी थे। हल्दी-घाटी की लड़ाई में राना प्रताप ने मेरे पूर्वज को यह जागीर दी थी। अब भी मुझे दरबार में कुर्सी मिलती है और पान-इलायची से सत्कार होता है, कोई कार्य-प्रयोजन होता है, तो महाराना के यहाँ से आदमी आता है। बड़ा लड़का मरा था, तो महाराना ने शोकपत्र भेजा था।"

नायकराम-"जागीरदारी का क्या कहना! जो जागीरदार, वही राजा, नाम का फरक है। असली राजा तो जागीरदार ही होते हैं, राना तो नाम के हैं।"

दारोगा-"बराबर राजकुल से आना-जाना लगा रहता है।"

नायकराम-"अभी इनकी कहीं बातचीत तो नहीं हो रही है?"

दारोगा--"अजी, लोग जान तो खा रहे हैं, रोज एक-न-एक जगह से संदेसा आता रहता है; पर मैं सबों को टका-सा जवाब दे देता हूँ। जब तक लड़का पढ़-लिख न ले, तब तक उसका विवाह कर देना नादानी है।”

नायकराम-"यह आपने पक्की बात कही। जथारथ में ऐसा ही होना चाहिए। बड़े आदमियों की बुद्धि भी बड़ी होती है। पर लोक-रीति पर चलना ही पड़ता है। अच्छा, अब आज्ञा दीजिए, कई जगह जाना है। जब तक मैं लौटकर न आऊँ, किसी को जवाब न दीजिएगा। ऐसी कन्या आपको न मिलेगी और न ऐसा उत्तम कुल ही पाइएगा।"

दारोगा-“वाह-वाह! इतनी जल्द चले जाइएगा? कम-से-कम भोजन तो कर लीजिए। कुछ हमें भी तो मालूम हो कि आप किसका सँदेसा लाये हैं? वह कौन हैं, कहाँ रहते हैं?"

नायकराम-"सब कुछ मालूम हो जायगा, पर अभी बताने का हुकुम नहीं है।" दारोगा ने लड़के से कहा-"तिलक, अंदर जाओ, पण्डितजी के लिए पान बनवा लाओ, कुछ नाश्ता भी लेते आना।"

यह कहकर तिलक के पीछे-पीछे खुद अन्दर गये और गृहिणी से बोले-"लो, कहीं से तिलक के ब्याह का सँदेसा आया है। पान तश्तरी में भेजना। नाश्ते के लिए कुछ नहीं है? वह तो मुझे पहले हो मालूम था। घर में कितनी ही चीज आये, दुबारा देखने को नहीं मिलती। न जाने कहाँ के मरभुखे जमा हो गये हैं। अभी कल ही एक कैदी के घर से मिठाइयों का पूरा थाल आया था, क्या हो गया?"

स्त्री-"इन्हीं लड़कों से पूछो, क्या हो गया। मैं तो हाथ से छूने की भी कसम-खाती हूँ। यह कोई संदूक में बंद करके रखने की चीज तो है नहीं। जिसका जब जी चाहता है, निकालकर खाता है। कल से किसी ने रोटियों की ओर नहीं ताका।"

दारोगा-"तो आखिर तुम किस मरज की दवा हो? तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि जो चीज घर में आये, उसे यत्न से रखो, हिसाब से खर्च करो। वह लौंडा कहाँ गया?"