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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३१२

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रंगभूमि

स्त्री-"तुम्हीं ने तो अभी उसे डाँटा था, बस चला गया। कह गया है कि घड़ी-घड़ी की डाँट-फटकार वरदाश्त नहीं हो सकती।”

दारोगा-"यह और मुसीबत हुई। ये छोटे आदमी दिन-दिन सिर चढ़ते जाते हैं, कोई कहाँ तक इनकी खुशामद करे, अब कौन बाजार से मिठाइयाँ लाये? आज तो किसी सिपाही को भी नहीं भेज सकता, न जाने सिर से कब यह बला टलेगी। तुम्हीं चले जाओ तिलक!”

तिलक-"शर्बत क्यों नहीं पिला देते?”

स्त्री-"शकर भी तो नहीं है। चले क्यों नहीं जाते?”

तिलक-"हाँ, चले क्यों नहीं जाते! लोग देखेंगे, हजरत मिठाई लिये जाते हैं।”

दारोगा-"तो इसमें क्या गाली है, किसी के घर चोरी तो नहीं कर रहे हो? बुरे काम से लजाना चाहिए, अपना काम करने में क्या लाज?"

तिलक यों तो लाख सिर पटकने पर भी बाजार न जाते, पर इस वक्त अपने विवाह की खुशी थी, चले गये। दारोगाजी ने तश्तरी में पान रखे और नायकराम के पास लाये।

नायकराम-"सरकार, आपके घर पान नहीं खाऊँगा।"

दारोगा-"अजी, अभी क्या हरज है, अभी तो कोई बात भी नहीं हुई।"

नायकराम-"मेरा मन बैठ गया, तो सब ठीक समझिए।"

दारोगा-“यह तो आपने बुरी पख लगाई। यह बात नहीं हो सकती कि आप हमारे द्वार पर आयें और हम बिना यथेष्ट आदर-सत्कार किये आपको जाने दें। मैं तो मान भी जाऊँगा, पर तिलक की माँ किसी तरह राजी न होंगी।"

नायकराम-"इसी से मैं यह सँदेसा लेकर आने से इनकार कर रहा था। जिस भले आदमी के द्वार पर जाइए, वह भोजन और दच्छिना के बगैर गला नहीं छोड़ता। इसी से तो आजकल कुछ लबाड़ियों ने बर खोजने को ब्यौसाय बना लिया है। इससे यह काम करते हुए और भी संकोच होता है।"

दारोगा-"ऐसे धूर्त यहाँ नित्य ही आया करते हैं; पर मैं तो पानी को भी नहीं पूछता। जैसा मुँह होता है, वैसा बीड़ा मिलता है। यहाँ तो आदमी को एक नजर देखा और उसकी नस-नस पहचान गया। आप यों न जाने पायँगे।"

नायकराम-"मैं जानता कि आप इस तरह पीछे पड़ जायेंगे, तो लबाड़ियों ही की-सी बातचीत करता। गला तो छूट जाता!"

दारोगा-“यहाँ ऐसा अनाड़ी नहीं हूँ, उड़ती चिड़िया पहचानता हूँ।"

नायकराम डट गये। दोपहर होते-होते बच्चे-बच्चे से उनकी मैत्री हो गई। दारोगाइन ने भी पालागन कहला भेजा। इधर से भी आशीर्वाद दिया गया। दारोगा तो दस बजे दफ्तर चले गये। नायकराम के लिए घर में पूरियाँ-कचौरियाँ, रायता, दही, चटनी, हलवा बड़ी विधि से बनाया गया। पण्डितजी ने भीतर जाकर भोजन किया। स्वामिनी ने