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रंगभूमि


लाओगे? नहीं, वह न आयेगा, वह मुझसे रूठा हुआ है। कभी न आयेगा। उसे साथ लाओ, तो तुम्हारा बड़ा उपकार होगा।' इतना सुनते ही मैं वहाँ से चल खड़ा हुआ। अब बिलम न कीजिए, कहीं ऐसा न हो कि माता की लालसा मन ही में रह जाय, नहीं तो आपको जनम-भर पछताना पड़ेगा।"

विनय-"कैसे चलूँगा?"

नायकराम-"इसकी चिंता मत कीजिए, ले तो मैं चलूँगा। जब यहाँ तक आ गया, तो यहाँ से निकलना क्या मुसकिल है!"

विनय कुछ सोचकर बोले-"पण्डाजी, मैं तो चलने को तैयार हूँ; पर भय यही है कि कहीं अम्माँजी नाराज न हो जायँ, तुम उनके स्वभाव को नहीं जानते।"

नायकराम-"भैया, इसका कोई भय नहीं है। उन्होंने तो कहा है कि जैसे बने, वैसे लाओ। उन्होंने यहाँ तक कहा था कि माफी मांगनी पड़े, तो इस औसर पर माँग लेनी चाहिए।"

विनय-"तो चलो, कैसे चलते हो?"

नायकराम-"दिवाल फाँदकर निकल जायँगे, यह कौन मुसकिल है!"

विनयसिंह को शंका हुई कि कहीं किसी की निगाह पड़ गई, तो! सोफी यह सुनेगी, तो क्या कहेगी? सब अधिकारी मुझ पर तालियाँ बजायेंगे। सोफी सोचेगी, बड़े सत्यवादी बनते थे, अब वह सत्यवादिता कहाँ गई। किसी तरह सोफ़ी को यह खबर दी जा सकती, तो वह अवश्य आज्ञा-पत्र भेज देती, पर यह बात नायकराम से कैसे कहूँ?

बोले-“पकड़ गये, तो?"

नायकराम-“पकड़ गये, तो! पकड़ेगा कौन? यहाँ कच्ची गोली नहीं खेले हैं। सब आदमियों को पहले ही से गाँठ रखा है।"

विनय-"खूब सोच लो। पकड़ गये, तो फिर किसी तरह छुटकारा न होगा।"

नायकराम—“पकड़े जाने का तो नाम ही न लो। यह देखो, सामने कई ईटें दिवाल से मिलाकर रखी हुई हैं। मैंने पहले ही से यह इंतजाम कर लिया है। मैं ईंटों पर खड़ा हो जाऊँगा। आप मेरे कंधे पर चढ़कर इस रस्सी को लिये हुए दिवाल पर चढ़ जाइएगा। रस्सी उस तरफ फेक दीजिएगा। मैं इसे इधर मजबूत पकड़े रहूँगा, आप उधर धीरे से उतर जाइएगा। फिर वहाँ आप रस्सी को मजबूत पकड़े रहिएगा, मैं भी इधर से चला आऊँगा। रस्सी बड़ी मजबूत है, टूट नहीं सकती। मगर हाँ, छोड़ न दीजिएगा, नहीं तो मेरी हड्डी-पसली टूट जायँगी।" यह कहकर नायकराम रस्सी का पुलिंदा लिये हुए ईटों के पास जाकर खड़े हो गये।

विनय भी धीरे-धीरे चले। सहसा किसी चीज के खटकने की आवाज आई। विनय ने चौंककर कहा-"भाई, मैं न जाऊँगा। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। माताजी के दर्शन करना मेरे भाग्य में नहीं है।"

नायकराम—"घबराइए मत, कुछ नहीं है।"