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रंगभूमि

नायकराम—"किसके बँगले तक?"

विनय—"पोलिटिकल एजेंट के।”

नायकराम—"उनके बँगले पर जाकर क्या कीजिएगा? क्या अभी तक परोकार से जी नहीं भरा? ये जानें, वह जानें, हमसे-आपसे मतलब?"

विनय—"नहीं, मौका नाजुक है, वहाँ जाना जरूरी है।"

नायकराम—"नाहक अपनी जान के दुसमन हुए हो। वहाँ कुछ दंगा हो जाय, तो! मरद हैं हो, चुपचाप खड़े मुँह तो देखा न जायगा। दो-चार हाथ इधर या उधर "चला ही देंगे। बस, धर-पकड़ हो जायगी। इससे क्या फायदा?"

विनय—"कुछ भी हो, मैं यहाँ यह हंगामा होते देखकर स्टेशन नहीं जा सकता"

नायकराम—"रानीजी तिल-तिल पर पूछतो होंगी।"

विनय—"तो यहाँ कौन हमें दो चार दिन लगे जाते हैं। तुम यहीं ठहरो, मैं अभी आता हूँ।"

नायकराम—"जब तुम्हें कोई भय नहीं है, तो यहाँ कौन रोनेवाला बैठा हुआ है। मैं आगे-आगे चलता हूँ। देखना, मेरा साथ न छोड़ना। यह ले लो, जोखिम का मामला है। मेरे लिए यह लकड़ी काफी है।"

यह कहकर नायकराम ने एक दोनलीवाली पिस्तौल कमर से निकालकर विनय के हाथ में रख दी। विनय पिस्तौल लिये हुए आगे बढ़े। जब राजभवन के निकट पहुँचे, तो इतनी भीड़ देखी कि एक-एक कदम चलना मुश्किल हो गया, और भवन से एक गोली के टप्पे पर तो उन्हें विवश होकर रुकना पड़ा। सिर-ही-सिर दिखाई देते थे। राजभवन के सामने एक बिजली की लालटेन जल रही थी और उसके उज्ज्वल प्रकाश में हिलता, मचलता, रुकता, ठिठकता हुआ जन-प्रवाह इस तरह भवन की ओर चला जा रहा था, मानों उसे निगल जायगा। भवन के सामने, इस प्रवाह को रोकने के लिए, वरदीपोश सिपाहियों की एक कतार, संगीनें चढ़ाये, चुपचाप खड़ी थी और ऊँचे चबूतरे पर खड़ी होकर सोफी कुछ कह रही थी; पर इस हुल्लड़ में उसकी आवाज सुनाई न देती थी। ऐसा मालूम होता था कि किस। विदुषो की मूर्ति है, जो कुछ कहने का संकेत कर रही है।

सहसा सोफिया ने दोनों हाथ ऊपर उठाये। चारों ओर सन्नाटा छा गया। सोफी ने उच्च और कंपित स्वर में कहा-"मैं अन्तिम बार तुम्हें चेतावनी देती हूँ कि यहाँ से शान्ति के साथ चले जाओ, नहीं तो सैनिकों को विवश होकर गोली चलानी पड़ेगी। "एक क्षण के अन्दर यह मैदान साफ हो जाना चाहिए।"

वीरपालसिंह ने सामने आकर कहा-"प्रजा अब ऐसे अत्याचार नहीं सह सकती।"

सोफी—“अगर लोग सावधानी से रास्ता चलें, तो ऐसी दुर्घटना क्यों हो!"

वीरपाल–मोटरवालों के लिए भी कोई कानून है या नहीं?"

सोफी—"उनके लिए कानून बनाना तुम्हारे अधिकार में नहीं है।"